Sunday, November 7, 2010
बुढ़िया
बुढ़िया
जो
आदरसूचक अर्थ नहीं रखता
मगर
अवस्थाबोध जरुर कराता है
जिसे भिखमंगे जैसी दया की
दरकार होती है
मेरी दादी वही हो गयी है
बुढ़िया
माँ की नज़रों में
वह काम नहीं कर सकती है
इसलिए
पापा कहते है
मुफ्तखोर
फ्लैट के उस कोने में
जहाँ
मै टॉमी को बांधता था
बिस्तर लगा है
बुढ़िया
यानि मेरी दादी का
माँ की जो साड़ी
पहले कामवाली बाई ले जाती थी
अब पहनती है
बुढ़िया
यानी मेरी दादी
कल जब सिन्हा आंटी आयी थी
तो
माँ ने कहा था
उनके गांव की है
बुढ़िया
वह हमेशा राम - राम जपती रहती है
डेली सोप के समय
माँ चीखती है
पागल बुढ़िया
चुप रहो
मै उससे मिल नहीं सकता
वह बीमार है
स्कूल से लौटने पर
उसे दूर से देख सकता हूँ
उसके हाथ कांपते रहते है
वह दिन में कई बार
अपनी गठरी खोलती है
टटोलती है
मानों कुछ
खोज रही हो
और फिर बंद कर देती है
माँ कहती है
काफ़ी भद्दी और लालची है बुढ़िया
एकदम देहाती गंवार है
मगर
बुढ़िया मेरेलिए आश्चर्य है
जब मुझे पता लगा
कि
वह मेरे पापा की माँ है
तो
मुझे विश्वास नहीं हुआ
क्या माँ ऐसी होती है ?
एक दिन
उसने मुझे
पास बुलाकर एक मिठाई दी
और कहा -" खा "
मै खाने को ही था
कि
माँ ने आकर
मेरे हाथ झटक दिए
कहा -
जहर है मत खा
फिर बुढ़िया से कहा
इस मिठाई की तरह
तुम्हारा दिमाग भी सड़ गया है
वह रोज नहीं नहा पाती
वह बदबू देती है
उसके बर्तन अलग हैं
महाराज उसके लिए
अलग से खाना बनाता है
बुढ़िया यानी
मेरी दादी से
कोई बात नहीं करता
सिवाय उस महरी के
जो झाड़ू लगाने आती है
फिर भी
वह बड़बड़ाती रहती है
कभी-कभी
वह रोने लगती है
जबकि
उसे कोई मारता नहीं है
माँ कहती है
नाटक
मैंने जब माँ से पूछा -
बुढ़िया
यहाँ क्यूँ आई है
तो
माँ ने हँसते हुए कहा -
मरने के लिए!
(एक बार फिर अपनी इस कविता को आपके लिए प्रकाशित कर रहा हूँ - ॐ राजपूत)
Saturday, November 6, 2010
समय ठहरा रहेगा तब तक
मैं उस क्षण
भी
करूँगा तुम्हारा स्वागत
जब
शरीर मुर्झा चुकी होगी
आँखों ने बोलना
और
मस्तिष्क ने समझाना
बंद कर दिया होगा
एक-एक कर ढेरों
कलैंडर
उतर चुके होंगे दीवार से .
मैं दीवार पर
एक नया कलैंडर खिलाऊंगा
और फूलदान से
बासी फूलों को निकाल
उसमें
ताजे फूलों के साथ
शेष बची जिंदगी को भी
सजा दूंगा.
समय ठहरा रहेगा तब तक.
Thursday, November 4, 2010
और तुम भी
कभी ऐसा भी होता है
और
एक रौशनी चली जाती है
बिना किसी को प्रकाशित किये
फिर
हाथ जो बने है
स्पर्श को संज्ञा प्रदान करने के लिए
अनछुए ही लौट आते है
पहलु में
कभी - कभी कोई यायावर
पूरी तैयारी के बावजूद
कहीं नहीं जाता है
और
शहर का सबसे पढ़ा - लिखा व्यक्ति
मर जाता है
किताबों को आलमारी में कैद किये
इधर
रात के प्रहरी की आवाज़
गुज़र जाती है
कानों के बिलकुल करीब से
हम जागते नहीं
फिर
पागलों की जमात में बैठा
नया पागल कहता है
अभी भी वक़्त चाहिए
अभी भी ओ खुदा
तुम्हारी दुनिया बन ही रही है
और तुम भी ।
Tuesday, November 2, 2010
मेरी प्रेयसी मेरी कविता
Sunday, October 31, 2010
माँ की बाँहों में
माँ सी धरती
Friday, October 29, 2010
फिर तुम्हारी याद दस्तक हुई सी जाती है
फिर तुम्हारी याद
दस्तक हुई सी जाती है
और
सिरहाने में सोये
किताब के पन्ने
जी उठते हैं
मेरे जीवन में
घटी
जिन घटनाओ के नीचे
लाल स्याही से
तुमने
एक लकीर डाली थी
महत्वपूर्ण हर वह वाकया
इसी किताब में तो रहता है
जिसके हर पन्ने पर
चाँद
अपनी चाँदनी बिखेरता रहता है
फूल
खुद ही आकर
जहाँ खिल उठते हैं
बहार
पूरे बरस बनी रहती है
तुम्हारी याद
इसी कारण
अपनी छुट्टियाँ मनाती है
इस किताब को जगाकर।
Wednesday, October 27, 2010
कल के चूल्हे के लिए.
कल के चूल्हे के लिए.
तुम शहर में वापस आ गयी हो . (once more)
Monday, October 25, 2010
संजीवनी है तुम्हारी आहट
जिससे जिन्दा होती है मेरी वैयक्तिकता
मै जो करते-करते कार्य
हो जाता हूँ यंत्र,
तब
सामान्य होने का सुख बटोरता हूँ
जब
तुम देती हो
एक छोटी आवाज़
झील के उस पार से
इधर
कमरे में ताज़ी हवा घुस आती है
पुस्तकों में सिमटे शब्द
बिस्तर पर उतर आते हैं
और मैं
करीने से पलटता हूँ
फिर से
अपनी जिंदगी की किताब को
दुनिया की असंख्य संबोधनों में से
यह एक काफी है
जो मुझे मरने नहीं देगी
खास मेरे लिए
जब एक स्वर तैरती है
तुम्हारी
मंदिर में बजती है भोर की घंटी
नदी में उठती है कुंवारी लहर
हवा सोये फूलों को जगा जाती है
और मैं
फिर से गढ़ता हूँ एक परिभाषा
अपने लिए
क्योंकि
जिंदगी ने कम ही दिए हैं
ऐसे मौके
जब
मेरी संवेदना मेरे शरीर को महसूस करती है .
Saturday, October 23, 2010
जो धुँआ उठ रहा है
Friday, October 22, 2010
मुफलिसी की नवाबी
यदि आप यह दावा करते हैं
Tuesday, October 19, 2010
तुम शहर में वापस आ गयी हो .
कुछ शब्द
तुम्हे सौंपा था
मैंनेअपना समझ कर
और
तुम्हारे हाथ से
वे छिटक गए
क्योंकि
उनका अर्थ लगाना आसान था
पगडण्डी
घर मेरा बसा है
बस्ती से दूर किसी के पास
जिसके चारो ओर पगडण्डी है
यादों की
जिससे होकर गुजरना
जिंदगी को कई बार जीना है
Friday, October 15, 2010
उम्मीद की लत
Thursday, October 14, 2010
कविता की रेजगारी
मेरे हाथ से छूटते शब्द
Sunday, October 10, 2010
तरक्की पसंद कविता .
केवल
कुछ कम गलती है
मेरे
तेरे ?
राजा एक हो सकता है
या
सात हजार सात सौ सात
पर
परजा की बात
तो
करोड़ों में जाती है
फिर भी
नयी रौशनी नहीं आती है ।
राजा के
सेवक
लठैत
मुनीम
गुमाश्ता
पंडित
हरकारा
में हम नहीं है ।
राजा का उतरन पहनने वाला
कम नहीं है ।
बाहर
राजा जिसे अखरता है ।
घर में
राजा की नक़ल नहीं करता है ?
बाहर
अराजकता
लूट
अन्याय
का शोर है
पर
सच पूछो तो
हमारे अन्दर भी एक चोर है
जो
भूख के नाम पर छीन लाये
रोटी को
खुद डकार जाता है
मगर
वादें लेनिन की करता है ।
कसमें माओ की खाता है ।
३१ -८ - २०१०
Saturday, October 9, 2010
bihar chunaw
बीजेपी के साथ किया क्या देखो भैया ठाकुर ने .
पुत्र मोह में छोड़ दिया अनुशासन और नैतिकता ,
लोकतंत्र की नयी राह पर लोभ मोह ही टिकता .
कहे बिहारी बेबस होके आपस की दूरी पाटो,
बीबी बच्चे बहु बेटे में पार्टी की टिकट बाँटो
bihar chunaw
बीजेपी के साथ किया क्या देखो भैया ठाकुर ने .
पुत्र मोह में छोड़ दिया अनुशासन और नैतिकता ,
लोकतंत्र की नयी राह पर लोभ मोह ही टिकता .
कहे बिहारी बेबस होके आपस की दूरी पाटो,
बीबी बच्चे बहु बेटे में पार्टी की टिकट बाँटो
Wednesday, October 6, 2010
औरत
औरत
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वह औरत
आकाश और पृथ्वी के बीच
कब से कपड़े पछीट रही है
पछीट रही है शताब्दियों से
धूप के तार पर सुखा रही है
वह औरत आकाश और धूप और हवा से
वंचित घुप्प गुफा में
कितना आटा गूँध रही है?
गूँध रही है मनों सेर आटा
असंख्य रोटियाँ
सूरज की पीठ पर पका रही है
एक औरत
दिशाओं के सूप में खेतों को
फटक रही है
एक औरत
वक्त की नदी में
दोपहर के पत्थर से
शताब्दियाँ हो गई,
एड़ी घिस रही है
एक औरत अनन्त पृथ्वी को
अपने स्तनों में समेटे
दूध के झरने बहा रही है
एक औरत अपने सिर पर
घास का गट्ठर रखे
कब से धरती को
नापती ही जा रही है
एक औरत अंधेरे में
खर्राटे भरते हुए आदमी के पास
निर्वसन जागती
शताब्दियों से सोई है
एक औरत का धड़
भीड़ में भटक रहा है
उसके हाथ अपना चेहरा ढूँढ रहे हैं
उसके पाँव
जाने कब से
सबसे अपना पता पूछ रहे हैं।
- चन्द्रकान्त देवताले
Sunday, September 19, 2010
क्या हो सकता है .
लोगों को लगता है कि उनकी परेशानी बढती जा रही है। लोग अनैतिक होते जारहे है , मूल्यों का पतन हो रहा है ,
रिश्ते टूट रहे है । वे ये भी समझते है कि आधुनिकता ने सबको अँधा बना दिया है । कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी
इस बात को हवा दे रहे है कि हमारी परंपरा हमारी संस्कृति को ख़त्म करने के लिए व्यापक साजिश रची जा रही है। वे इसके लिए पश्चिमी संस्कृति के खुलेपन को जिम्मेवार ठहराते है । देश की एक बड़ी आबादी को बहकाकर
वे समाज में अपनी पहचान कायम करना चाहते है । क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता है की अगर हम उसे गलत समझते है तो हम उसके खिलाफ एकजुट हो , तो आईये उनका विरोध किया जाय अपनी कलम से अपने विचार से । धन्यवाद ।
Sunday, September 12, 2010
बुढ़िया
बुढ़िया
जो
आदरसूचक अर्थ नहीं रखता
मगर
अवस्थाबोध जरुर करता है
जिसे भिखमंगे जैसी दया की
दरकार होती है
मेरी दादी वही हो गयी है
बुढ़िया
माँ की नज़रों में
वह काम नहीं कर सकती है
इसलिए
पापा कहते है
मुफ्तखोर
फ्लेट के उस कोने में
जहाँ
मै टॉमी को बांधता था
बिस्तर लगा है
बुढ़िया
यानि मेरी दादी का
माँ की जो साड़ी
पहले कामवाली बाई ले जाती थी
अब पहनती है
बुढ़िया
यानी मेरी दादी
कल जब सिन्हा आंटी आयी थी
तो
माँ ने कहा था
उनके गांव की है
बुढ़िया
वह हमेशा राम - राम जपती रहती है
डेली सोप के समय
माँ चीखती है
पागल बुढ़िया
चुप रहो
मै उससे मिल नहीं सकता
वह बीमार है
स्कूल से लौटने पर
उसे दूर से देख सकता हूँ
उसके हाथ कांपते रहते है
वह दिन में कई बार
अपनी गठरी खोलती है
टटोलती है
मानों कुछ
खोज रही हो
और फिर बंद कर देती है
माँ कहती है
काफ़ी भद्दी और लालची है बुढ़िया
एकदम देहाती गंवार है
मगर
बुढ़िया मेरेलिए आश्चर्य है
जब मुझे पता लगा
कि
वह मेरे पापा की माँ है
तो
मुझे विश्वास नहीं हुआ
क्या माँ ऐसी होती है ?
एक दिन
उसने मुझे
पास बुलाकर एक मिठाई दी
और कहा -" खा "
मै खाने को ही था
कि
माँ ने आकर
मेरे हाथ झटक दिए
कहा -
जहर है मत खा
फिर बुढ़िया से कहा
इस मिठाई की तरह
तुम्हारा दिमाग भी सड़ गया है
वह रोज नहीं नहा पाती
वह बदबू देती है
उसके बर्तन अलग हैं
महाराज उसके लिए
अलग से खाना बनाता है
बुढ़िया यानी
मेरी दादी से
कोई बात नहीं करता
सिवाय उस महरी के
जो झाड़ू लगाने आती है
फिर भी
वह बड़बड़ाती रहती है
कभी-कभी
वह रोने लगती है
जबकि
उसे कोई मारता नहीं है
माँ कहती है
नाटक
मैंने जब माँ से पूछा -
बुढ़िया
यहाँ क्यूँ आई है
तो
माँ ने हँसते हुए कहा -
मरने के लिए!
- ॐ राजपूत
Thursday, June 10, 2010
तुम्हारा साथ, तुम्हारे करीब, तुम्हारी बातें .
सबसे सुन्दरतम दिनों में
तुम्हारा साथ
खिलते गुलाब पर
कविता करने जितना सुखद था
तब
तुम्हारे करीब होने का
अहसास
आँगन में पसरी
जाड़े की गुनगुनाती धूप
की तरह आरामदायक थी
और
सन्दर्भ के
किसी छोर पर बैठे
मीलों आ ठिठकती
तुम्हारी
बात से जोड़ती बात
सुबह की चाय पर चाय
की तरह प्यारी थी
तभी तो
अधिकारपूर्वक
तुम्हारा सौंपा हर विश्वास
मेरे उनदिनों में
मुफलिसी की नवाबी थी ।
- ॐ राजपूत
०२-०३-२००१
और तुम भी .
कभी ऐसा ही होता है
और
एक रौशनी चली जाती है
बिना किसी को प्रकाशित किये
फिर
हाथ जो बने है
स्पर्श को संज्ञा प्रदान करने के लिए
अनछुए ही लौट आते है
पहलु में
कभी - कभी कोई यायावर
पूरी तैयारी के बावजूद
कहीं नहीं जाता है
और
शहर का सबसे पढ़ा - लिखा व्यक्ति
मर जाता है
किताबों को आलमारी में कैद किये
इधर
रात के प्रहरी की आवाज़
गुज़र जाती है
कानों के बिलकुल करीब से
हम जागते नहीं
फिर
पागलों की जमात में बैठा
नया पागल कहता है
अभी भी वक़्त चाहिए
अभी भी ओ खुदा
तुम्हारी दुनिया बन ही रही है
और तुम भी ।
- ॐ राजपूत
०८-०८-03
एक कविता
एक कविता
मेरे जीवन में आई है
चलकर
जिसकी चाल
ईश्वर की प्रार्थना की तरह
पवित्र है
एक कविता
जिसे मैंने रखा है
सहेज कर
कभी न मुरझाने वाले फूलों के साथ
एक कविता
जिन्दा रहती है
हमेशा
मेरे बगल में
और
मुझसे बतियाती है
तो
समय थम जाता है
एक कविता
जिसे मैं खोज़ता था
या
एक कविता
जो
मुझे खोजती चली आई
वो कविता
तुम्हारी अभिव्यन्ज़क है
जो
मेरे सिरहाने उतर गई है
एक कविता
मेरे जीवन में आई है
चलकर
जिसकी चाल
ईश्वर की प्रार्थना की तरह
पवित्र है
एक कविता
जिसे मैंने रखा है
सहेज कर
कभी न मुरझाने वाले
फूलों के साथ
एक कविता
जिंदा रहती है हमेशा
मेरे बगल मैं
और
मुझसे बतियाती है
तो
समय थम जाता है
एक कविता
मेरे जीवन में आई है
चलकर
जिसकी चाल
ईश्वर की प्रार्थना की तरह
पवित्र है
एक कविता
जिसे मैंने रखा है
सहेज कर
कभी न मुरझाने वाले
फूलों के साथ
आदमी के पक्ष का ईश्वर कहाँ है ?
एक कोना प्यार
जिंदगी
अपने पूरे हिस्से के साथ
हाथ नहीं आती है क्यों
दुनिया में आने पर
जीने की बेबसी क्यों
कौन ले जाता है चुराकर
हमारे हिस्से का रंगीन फूल
आखिर
इससे धरती पर
किसी का क्या सधता है
अगर यह शैतान है
तो
आदमी के पक्ष का ईश्वर कहाँ है ?
Wednesday, June 9, 2010
सेमिनार
Tuesday, June 8, 2010
ABHISHEK MOLU N BHOLU K LIYE
A JOURNEY TO KHAGARIA
कविता :-एक दिन मनुष्य भी हमारी अनुमति से खत्म हो जाएगा।
कितना मुश्किल होता है किसी को न बोल पाना हम कितना जोड़ रहे हैं घटाव में। बेकार मान लिया जाता है आदतन अपने समय में और अपनी जगह पर जीना किसी ...
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एक शब्द है बुढ़िया जो आदरसूचक अर्थ नहीं रखता मगर अवस्थाबोध जरुर कराता है जिसे भिखमंगे जैसी दया की दरकार होती है मेरी दादी वही हो गयी ...
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`सुबह की अलसाई नींद बिस्तर से उतरती है डगमगाते पैरों की मानिंद लेती है टेक आँख खुलने की सच्चाई आईने पर पसर जाती है और रौशनदान से सूरज की पे...
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इतिहासलेखन का स्वरूप, इतिहासलेखन का उद्देश्य और इतिहासलेखन में समय-समय पर होने वाले परिवर्तनों का सीधा संबंध समकालीन राजनीति के साथ होता ह...