संजीवनी है तुम्हारी आहट
जिससे जिन्दा होती है मेरी वैयक्तिकता
मै जो करते-करते कार्य
हो जाता हूँ यंत्र,
तब
सामान्य होने का सुख बटोरता हूँ
जब
तुम देती हो
एक छोटी आवाज़
झील के उस पार से
इधर
कमरे में ताज़ी हवा घुस आती है
पुस्तकों में सिमटे शब्द
बिस्तर पर उतर आते हैं
और मैं
करीने से पलटता हूँ
फिर से
अपनी जिंदगी की किताब को
दुनिया की असंख्य संबोधनों में से
यह एक काफी है
जो मुझे मरने नहीं देगी
खास मेरे लिए
जब एक स्वर तैरती है
तुम्हारी
मंदिर में बजती है भोर की घंटी
नदी में उठती है कुंवारी लहर
हवा सोये फूलों को जगा जाती है
और मैं
फिर से गढ़ता हूँ एक परिभाषा
अपने लिए
क्योंकि
जिंदगी ने कम ही दिए हैं
ऐसे मौके
जब
मेरी संवेदना मेरे शरीर को महसूस करती है .
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कविता :-एक दिन मनुष्य भी हमारी अनुमति से खत्म हो जाएगा।
कितना मुश्किल होता है किसी को न बोल पाना हम कितना जोड़ रहे हैं घटाव में। बेकार मान लिया जाता है आदतन अपने समय में और अपनी जगह पर जीना किसी ...
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