और भीड़ दंगाई हो
शब्द चुप हो जाते है
मादरे - जुबान की
हम दुबकते हैं नकली खाल में
दोस्त और दुश्मन की सरहद
लथपथ राहों को रोक देती है
फिर क्या गरज
कि
जो धुँआ उठ रहा है
उसमे स्वाद है रोटी के बनने की
या दुर्गन्ध है
चूल्हे के जलने की .
कितना मुश्किल होता है किसी को न बोल पाना हम कितना जोड़ रहे हैं घटाव में। बेकार मान लिया जाता है आदतन अपने समय में और अपनी जगह पर जीना किसी ...
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