Friday, October 22, 2010

मुफलिसी की नवाबी

जीवन के
सबसे सुन्दरतम दिनों में
तुम्हारा साथ
खिलते गुलाब पर
कविता करने जितना सुखद था
तब
तुम्हारे करीब होने का
अहसास
आँगन में पसरी
जाड़े की गुनगुनाती धूप की तरह
आरामदायक थी
और
सन्दर्भ के
किसी भी छोड़ पर बैठ
मीलों आ ठिठकती
तुम्हारी
बात से जोड़ती बात
सुबह की चाय पर चाय
की तरह प्यारी थी
तभी तो
अधिकारपूर्वक
तुम्हारा सौंपा हर विश्वास
मेरे उन दिनों में
मुफलिसी की नवाबी थी

1 comment:

adhura swapn said...

om bhai..aapki aur meri kavita ka arth ek jaisa hi nikalta hai..matlab to apne pyar ko jeevit rakhne se hai....acha laga apse mulakat hui....blog pe hi sahi...likhte rahe meri subhkamnaye..

कविता :-एक दिन मनुष्य भी हमारी अनुमति से खत्म हो जाएगा।

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