फिर जो बचता है
वह
एक समझौता है
अवसर और जुगत की जुगलबंदी
जहाँ मुक्तिबोध लोग नहीं ठहरते
एक बार लिखा जाने के बाद
शब्द के अर्थ
निकल चुके होते हैं
केवल वर्तनी ढोयी जाती है.
ताश के पत्ते सरीखा
फेंटा जाता है
शब्द
जिसके बासीपन पर
हरे रंग का लेप लगा
बाजार से ख़रीदे
पानी का छिड़काव किया जाता है
ताकि
पश्चाताप की बेला में
लगे कि
अब भी मुमकिन है
अपनी कविता को बचा पाना
क्योंकि
हम नहीं जानते
कविकर्म का पाप
बनारस में धुलेगा कि नासिक में
पर
लम्बी आयु के दबाव में
कही
लिखी कविता का अर्थ
गुम न हो जाये
इसलिए
हम रख कि ढेर में
छुपा लेते हैं आग
इसतरह बचती है
जिंदगी
कल के चूल्हे के लिए.
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