Sunday, September 19, 2010

क्या हो सकता है .

हमारे आसपास की दुनिया हमें संतुष्ट नहीं करती है । हम महसूस करते है कि चीजे और बेहतर ही सकती है ।
लोगों को लगता है कि उनकी परेशानी बढती जा रही है। लोग अनैतिक होते जारहे है , मूल्यों का पतन हो रहा है ,
रिश्ते टूट रहे है । वे ये भी समझते है कि आधुनिकता ने सबको अँधा बना दिया है । कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी
इस बात को हवा दे रहे है कि हमारी परंपरा हमारी संस्कृति को ख़त्म करने के लिए व्यापक साजिश रची जा रही है। वे इसके लिए पश्चिमी संस्कृति के खुलेपन को जिम्मेवार ठहराते है । देश की एक बड़ी आबादी को बहकाकर
वे समाज में अपनी पहचान कायम करना चाहते है । क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता है की अगर हम उसे गलत समझते है तो हम उसके खिलाफ एकजुट हो , तो आईये उनका विरोध किया जाय अपनी कलम से अपने विचार से । धन्यवाद ।

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कविता :-एक दिन मनुष्य भी हमारी अनुमति से खत्म हो जाएगा।

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