Thursday, November 4, 2010

और तुम भी


कभी ऐसा भी होता है

कभी ऐसा ही होता है
और
एक रौशनी चली जाती है
बिना किसी को प्रकाशित किये
फिर
हाथ जो बने है
स्पर्श को संज्ञा प्रदान करने के लिए
अनछुए ही लौट आते है
पहलु में
कभी - कभी कोई यायावर
पूरी तैयारी के बावजूद
कहीं नहीं जाता है
और
शहर का सबसे पढ़ा - लिखा व्यक्ति
मर जाता है
किताबों को आलमारी में कैद किये
इधर
रात के प्रहरी की आवाज़
गुज़र जाती है
कानों के बिलकुल करीब से
हम जागते नहीं
फिर
पागलों की जमात में बैठा
नया पागल कहता है
अभी भी वक़्त चाहिए
अभी भी ओ खुदा
तुम्हारी दुनिया बन ही रही है
और तुम भी ।

2 comments:

Deepak chaubey said...

दीपावली के इस पावन पर्व पर आप सभी को सहृदय ढेर सारी शुभकामनाएं

मनोज कुमार said...

चिरागों से चिरागों में रोशनी भर दो,
हरेक के जीवन में हंसी-ख़ुशी भर दो।
अबके दीवाली पर हो रौशन जहां सारा
प्रेम-सद्भाव से सबकी ज़िन्दगी भर दो॥
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
सादर,
मनोज कुमार

कविता :-एक दिन मनुष्य भी हमारी अनुमति से खत्म हो जाएगा।

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