Sunday, October 31, 2010

माँ की बाँहों में

`सुबह की अलसाई नींद
बिस्तर से उतरती है
डगमगाते पैरों की मानिंद
लेती है टेक
आँख खुलने की सच्चाई
आईने पर पसर जाती है
और
रौशनदान से
सूरज की पेशी
पिता की अदालत में
जिंदगी भर देता है
और
एक एक कर
बेपरवाह होने की वजह से
सिमट जाती है
मेरी उम्मीद
माँ की बाँहों में
जो कि
पहली साँस से अनवरत
मुझमे जान फूंकती रही है
और फिर
माँ की हँसी की डोर थामे
उड़ चढ़ता हूँ मैं
आसमान में
और ऊँचा और ऊँचा
उस पतंग की तरह
जिसकी जिंदगी शाम होने पर भी
आसमान से नहीं उतरती

6 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

माँ हर तरह आगे बढने की प्रेरणा देती है ...सुन्दर रचना ...

कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 02-11-2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया


कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...

वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .

Dr. Om Rajput said...

आपने मेरी कविता की जो सराहना की है उसके लिए आपका शुक्रिया .

रश्मि प्रभा... said...

charcha manch se yahan aai , prabhaw hai in bhawnaaon ka aur kahna hai ki

vatvriksh ke liye yah rachna bhejen rasprabha@gmail.com per parichay aur tasweer ke saath

मनोज कुमार said...

सुंदर रचना।

Udan Tashtari said...

बहुत पसंद आई रचना!

कविता :-एक दिन मनुष्य भी हमारी अनुमति से खत्म हो जाएगा।

  कितना मुश्किल होता है किसी को न बोल पाना हम कितना जोड़ रहे हैं घटाव में। बेकार मान लिया जाता है आदतन अपने समय में और अपनी जगह पर जीना किसी ...