Tuesday, October 19, 2010

तुम शहर में वापस आ गयी हो .

कल
कुछा अजीब - अजीब लगा था
शहर अपना
और
अपनी
बालकनी में फूल भी खिले थे
आज मैंने खुद को
काफी तरोताजा महसूस किया है
और
अपने कोट के कालर पर
एक फूल भी लगाया है
मैंने गुस्सा भी नहीं किया है
अपने नौकर पर
बिलकुल नहीं
बस कुछ पुरानी धुनों को
ताजा कर रहा हूँ
मैं आज बहुत खुश हूँ
लगता है मुझे
इससे
शायद
तुम शहर में वापस आ गयी हो .

5 comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

सब शुभ तुम से ही - ऐसे अनुमान लगाने वाले हों तो वह क्यों नहीं आएगी?
नई कविता के एक प्रसिद्ध कवि की रचना याद आ गई।
भूल रहा हूँ नहीं तो बता कर जाता।
आभार।

Anonymous said...

बहुत ही सुन्दर रचना.....

Amit K Sagar said...

बहुत भावुक और सुन्दर रचना. बहुत मजा आया पढके.
निरंतर लेखन हेतु शुभकामनाएं.
---
वात्स्यायन गली

adhura swapn said...

kash mujhe bhi sahar kabhi apna lage..aur wo kabhi wapas sehar main aa jaaye..bahut hi gehre bhav...gud one.

Unknown said...

शानदार प्रयास बधाई और शुभकामनाएँ।

-लेखक (डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश') : समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध 1993 में स्थापित एवं 1994 से राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली से पंजीबद्ध राष्ट्रीय संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान- (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। जिसमें 05 अक्टूबर, 2010 तक, 4542 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता राजस्थान के सभी जिलों एवं दिल्ली सहित देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे), मो. नं. 098285-02666.
E-mail : dplmeena@gmail.com
E-mail : plseeim4u@gmail.com

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