Tuesday, June 11, 2019

सिमरिया- जितना याद किया।

गाँव में अगर कोई मर जाए तो उसे जलाने के लिए सिमरिया ले जाना पड़ता था। जाया तो झमटिया भी जा सकता था, मगर झमटिया जाने का मतलब था कि आपकी माली हैसियत इतनी कमजोर है कि  आपसे छुप भी नहीं रहा । या फिर आप अपने संबंधी के अंतिम क्रियाक्रम को निपटाना भर चाहते हैं।
सिमरिया जाने का मतलब होता था कि आप अपने संबंधी को दिल से चाहते हैं और आपके पास खर्चने को रुपैया भी है। दाह संस्कार, विशाल नदी गंगा में स्नान और उसके बाद पूरी जलेबी का छककर भोग, यही था बचपन में मेरे लिए सिमरिया।
ओकील बाबा ( सबसे छोटे दादा जी) की मृत्यु के बाद पहली बार होश में सिमरिया जाने का मौका मिला था। वैसे तो मेरा मुंडन संस्कार झमटिया में हुआ था मगर बचपने में भी एकाध बार सिमरिया गया जरूर था। मेरे लिए सिमरिया का यही था पहला बोध।
" दो में से तुम्हें क्या चाहिए, कलम या कि तलवार।"
          बचपन में तलवार मेरा पसंदीदा खिलौना था। गत्ते वाली कॉपी से गत्ता निकाल के और कपड़े की दुकान से कूट मांग के तलवार बनाया करता था। फिर मध्यांतर में सहपाठी के साथ मिलके लड़ता भी था और जीत भी हासिल कर लेता था। जीत विरोधी की भी हो जाती थी। मगर हमारी तलवार दूसरे दिन के लिए बेकार हो जाती थी।बचपन से कलम का भी शौकीन रहा हूँ। जब भी कोई कुछ पैसा देता था तो उससे कलम ही खरीदता था। यह शौक आज भी बरकरार है।
           इसलिए दिनकर की यह कविता बचपन में मुझे प्रिय तो बहुत थी मगर परेशान भी खूब करती थी। मुझे तलवार और कलम दोनों चाहिए था और कविवर एक की बात करते थे। दिनकर से मेरा परिचय इसी कविता के माध्यम से हुआ था। दिनकर मेरे पहले प्रिय कवि थे। हमलोग दलसिंहसराय में आकर बस गए थे। हमारा पुश्तैनी गाँव नैपुर बेगूसराय जिले में ही है। दिनकर भी बेगूसराय से थे इसलिए स्कूल में जब दिनकर को पढ़ा और पढ़ाया जाता था तो मैं आत्मीय बोध से भर जाता था। लगता था कि लोग मेरे रिश्तेदार की बात कर रहे हैं। मगर फिर भी छात्र जीवन में मैंने दिनकर को उतना ही पढ़ा जितना पाठ्य पुस्तक में मिला। दिनकर का गाँव सिमरिया है, यह बचपन से जानता था। और यही था मेरे जीवन में सिमरिया का दूसरा बोध।
   जब नौकरी मिली तो पहली पोस्टिंग बरौनी ब्लॉक में हुई। उसी बरौनी में जहाँ सिमरिया है, वही सिमरिया जहाँ पुरखों की आत्मा बसी है, जो दिनकर का घर भी है। अब पता चला कि सिमरिया को जितना जानता था उससे काफी बड़ा है सिमरिया।  धर्म, अध्यात्म, कला, साहित्य और राजनीति को अपने में समाए सिमरिया तीन पंचायतों में फैला है।
मिथिला का मुक्तिधाम, कल्पवास और आदिकुम्भ स्थली सिमरिया, मल्हीपुर दक्षिण पंचायत में है। राष्ट्रकवि दिनकर का सिमरिया, सिमरिया एक पंचायत में है। सामाजिक न्याय का झंडा उठाए , अंध परंपरा और अंध विश्वास को चुनौती देता सिमरिया , सिमरिया दो पंचायत में है।
                    बेगूसराय और बिहार की राजनीति में बीहट की अपनी पहचान है। राम चरित्र बाबू से लेकर आज के कन्हैया कुमार तक बीहट की पहचान कायम है। इसके बावजूद मैं सिमरिया के विस्तार में ही बीहट को भी याद रखना चाहता हूँ। कदाचित बीहट भी सिमरिया को खुद से अलग कर देखना पसंद नहीं करेगा।
       अपने कार्यकाल में इस सिमरिया से कई रूप में जुड़ने का मौका मिला। प्रशासनिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए तीन कल्पवास और एक कुम्भ के आयोजन में सक्रिय भूमिका निभाने मौका मिला। सम्पूर्ण मिथिलांचल से, नेपाल से जब हजारों कल्पवासी एक - डेढ़ महीने के लिए सिमरिया के गंगा तट पे कल्पवास के लिए आते हैं , तो उनके लिए मूलभूत सुविधा की व्यवस्था करना एक प्रशासनिक चुनौती है। इस चुनौती को पूरा करने में सहायक के रूप में मैं कितना सफल रहा इसका आकलन तो दूसरे करेंगे । मगर मैं पूरी जिम्मेवारी के साथ यह तो कह ही सकता हूँ कि स्थानीय मुखिया रंजीत कुमार और उसकी टीम के सहयोग के बिना हमारे लिए कुछ भी कर पाना कठिन था।
    राजकीय सम्मान के साथ राष्ट्रकवि दिनकर को जयंती और पुण्यतिथि के अवसर पे याद करना मेरे लिए महज प्रशासनिक दायित्व कभी नहीं था। इसी कड़ी में पहली बार दिनकर की जन्मभूमि सिमरिया से जुड़ने का अवसर मिला। सितंबर 2014 में जब पहली बार सिमरिया मध्य विद्यालय में दिनकर जयंती समारोह में बोलने का अवसर मिला तो वर्षों से सोई मेरी साहित्यिक चेतना को फिर से जगने का मौका मिल गया। मुझे याद है जब पहली बार दिनकर जयंती के आयोजन के सिलसिले में मुचकुंद जी का फ़ोन आया था। बिना देखे मुचकुंद जी की जो छवि मैंने अपने मन मे गढ़ी थी, मुचकुंद जी से मिलने पे वो छवि ताड़-ताड़ हो गई। अपनी भदेस पहचान में बिल्कुल सादगी के साथ सामान्य कद काठी के एक व्यक्ति ने मुझसे कहा कि मैं ही मुचकुंद हूँ तो सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ कि यही वो आदमी है जो इतने बड़े आयोजन को नेतृत्व प्रदान कर रहा है। जहाँ देश के इतने नामी गिरामी साहित्यकार शिरकत कर रहे हैं। सिमरिया गाँव में घूमने के दौरान हर घर की दीवार पे जब दिनकर की पंक्तियों को लिखा देखा तो महसूस हुआ कि सारा गांव दिनकर की पुस्तक का रूप ले लिया है। गांव का हर घर पुस्तक का पन्ना बना हुआ है। गाँव में स्थित दिनकर पुस्तकालय और सभाभवन मेरे लिए गौरव का विषय बन गया। दिनकर जी के घर को देखने के बाद और वहाँ केदार बाबू से मिलने के बाद मुझे लगा कि आज मेरा तीर्थ पूरा हो गया है।

क्रमशः.....

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