Saturday, April 12, 2014

और घर के अन्दर से आती आवाज़ को .


तब भी हाँ करने की देर थी
तुम्हारे पास
जिससे होकर मेरी पूरी जिंदगी
फिसल गई
कितने गीत लिख डाले मैंने
कितनी कहानियां रच डाली
मगर मेरे मन का स्याह एकाकीपन
किसी को सुना नहीं पाया
दिखा नहीं पाया
अपनी ही लौटती आवाजों का
उत्तर देती रही मैं
इस तरह बचाती रही कल के लिए
अपनी उम्मीद
कि
कहीं तुम चले आए तो खोजोगे
एक मीठी नदी को
पीपल की छांव को
और घर के अन्दर से आती आवाज़ को .

No comments:

कविता :-एक दिन मनुष्य भी हमारी अनुमति से खत्म हो जाएगा।

  कितना मुश्किल होता है किसी को न बोल पाना हम कितना जोड़ रहे हैं घटाव में। बेकार मान लिया जाता है आदतन अपने समय में और अपनी जगह पर जीना किसी ...