इतिहासलेखन का स्वरूप, इतिहासलेखन का
उद्देश्य और इतिहासलेखन में समय-समय पर होने वाले परिवर्तनों का सीधा संबंध समकालीन
राजनीति के साथ होता है, क्योंकि इतिहास राजनीति का युद्धक्षेत्र है। समकालीन
राजनीति (राज्य नामक संस्था और उसके इर्द-गिर्द के कार्यकलाप) इतिहास को अपने ढंग
से प्रभावित करती है। इतिहासकार लियोपोल्ड वॉन रांके (Leopold Von Ranke) के इतिहासलेखन से पहले
इतिहास अध्ययन और लेखन का सीधा सा उद्देश्य लोगों को उनके पूर्वजों के बारे में
जानकारी देना था। इस जानकारी के बदौलत लोग अपने को सुसंस्कृत मानते थे। उस समय
सुसंस्कृत और सभ्य आदमी की जो परिभाषा थी उसमें इतिहास, राजनीति और साहित्य की समझ
का होना आवश्यक था। उस समय के इतिहास में पूर्वग्रह नहीं था। उस समय के इतिहास में
हम विशिष्ट नजरिए का प्रवर्तन नहीं पाएंगे। रांके के लिए इतिहास मूलतः राजवंशों की
कहानी थी। राजवंशों की कहानी में राजनीतिक क्रियाकलाप, राजनीति से जुड़ी हुई
घटनाएं, व्यक्तित्व आदि आती थी। इसी नजरिए से रांके द्वारा किए गए इतिहासलेखन का
ऐसा प्रभाव तत्कालीन इतिहासलेखन पर पड़ा कि इतिहास और राजनीति में घनिष्ठ संबंध
स्थापित हो गया। इस प्रकार के इतिहालेखन में समकालीन राजनीति को इतिहास के परिपेक्ष्य
में समझने के प्रयास हुआ। तभी से यह भी कहा जाता है कि इतिहास राजनीति के युद्ध का मैदान है।
राष्ट्रवाद के उदय में सहायक के रूप में इतिहास का प्रयोग इसका सबसे पहला उदाहरण
है। ऐसा पहले यूरोप में किया गया, फिर एशिया, अफ्रीका आदि में। इसकी सारी अवधारणा
राज्य के द्वारा समकालीन राजनीति के तहत विकसित किया गया था। राष्ट्रवाद की सारी
अवधारणा कहीं न कहीं से दी बातों पर आधारित है।–
१ तत्कालीन राजनीति की जरूरत
२ इसका ऐतिहासिक महत्व
राष्ट्रवाद की अवधारणा कैसे निर्मित हुई?
राष्ट्रवाद में निश्चित क्षेत्र में रहने
वाले लोगों के विशिष्ट पहचान की बात की जाती है। ये विशिष्टताएं आती कहाँ से है?
ये विशिष्टताएं इतिहास से आती है। बिना इतिहास के मदद के आप राष्ट्रवाद की अवधारणा
नहीं बना सकते। राष्ट्रवाद के विकसित होने में सहायक हर कारक तत्व इतिहास से ही
प्राप्त किए जाते हैं। रांके के इतिहासलेखन के बाद से आज तक इतिहास के साथ राजनीति
और राज्य जुड़ा हुआ है। यही कारण है कि राजनीति और राज्य की जरूरत के अनुरूप इतिहास
बदलता रहा है।
इतिहास
के दुरुपयोग और उपयोग की अवधारणा इसी प्रक्रिया के साथ जुड़ी हुई है। यह अवधारणा
मोटे तौर पर उन्नीसवीं सदी के मध्य में विकसित हुई। ये उपयोग और दुरुपयोग की बात
मोटे तौर पर एक ही बात है। हमारी समझ हमें बतलाती है कि इतिहासलेखन का यह रूप या
इतिहास का ऐसा इस्तेमाल इतिहास का उपयोग है और इतिहास का वैसा इस्तेमाल इतिहास का
दुरुपयोग है। अर्थात उपयोग और दुरुपयोग के बीच में हमारी समझ ही काम कर रही होती
है।
इतिहार में जब विवाद होता है और खासकर तब जब दो अलग-अलग विचार इतिहास की
मदद के खड़ा करने का प्रयास किया जाता है, तो दोनों पक्ष एक-दूसरे पर इतिहास के
दुरुपयोग करने का इल्जाम लगाते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि इतिहास के उपयोग और दुरुपयोग की अवधारणा कोई
शाश्वत अवधारणा नहीं है।
हम
कह सकते हैं कि इतिहास को पूर्वग्रह से मुक्त होना चाहिए और उसे अधिक से अधिक
वस्तुनिष्ठ होना चाहिए। जब हम इतिहास के उपयोग और दुरुपयोग की बात करते हैं तो
दोनों संदर्भ में हम इतिहास की वस्तुनिष्ठता को रेखांकित करते हैं। यह तो बार-बार
कहा जाता है कि इतिहास को वस्तुनिष्ठ होना चाहिए, लेकिन इतिहास वस्तुनिष्ठ होता
नहीं है, क्योंकि इसकी कुछ अपनी सीमाएं हैं। इतिहासलेखन में पूर्वग्रह की संभावना
बनी रहती है। हम इसे नकार नहीं सकते। तो फिर हमारा प्रयास ऐसा क्यों न हो कि हमारा
पूर्वग्रह सकारात्मक हो। यह पूर्वग्रह समाज को निर्माण की दिशा में आगे ले जाए,
समाज को तोड़े नहीं जोड़े। चूंकि इतिहास को पूर्वग्रह से मुक्त नहीं किया जा सकता है
तो हमें अपने उस पूर्वग्रह को सकारात्मक रूप ही देना होगा।
उपयोग और दुरुपयोग के साथ एक और महत्वपूर्ण बात जुड़ी हुई है कि इतिहास
अपने आप को दुहराता है। इतिहास अपने आप को कभी नहीं दुहराता है। लेकिन इस
दुहराने की बात से उपयोग और दुरुपयोग का सीधा सबंध है। इतिहास के दुहराने की बात
मानने पर हम यह भी मानते हैं कि इतिहास से सबक सीखने को मिलती है। यदि इतिहास से सबक मिलती है तो
इतिहास अध्ययन को सही सबक सीखने के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। लेकिन क्या इतिहास
सचमुच में अपने आप को दुहराता है? क्योंकि इतिहास वस्तुतः भूतकाल होता है और
भूतकाल का मतलब होता है समय जो बीत गया। वर्तमान जब बदलता है तो सारी चीजें बदल
जाती है। हमारी सारी समझ बदल जाती है। ऐसी स्थिति में चीजों को दुहराने की बात
नहीं होती है।
इतिहास मनुष्य और प्रकृति के आपसी संबंधों की कहानी है। यह एकपक्षीय
अवधारणा है। इतिहास अपने आप को पूर्ण रूपेण कभी नहीं दुहराता है। तो फिर लोग ऐसा
क्यों कहते हैं कि इतिहास की पुनरावृति होती है। इसके पीछे एक कारण था। ये सभी
बातें बीसवीं सदी के पहले तीन दशक में कही जाती थी। ये वो जमाना था जिसमें विज्ञान
के क्षेत्र अभूतपूर्व आविष्कार हो रहे थे। इस समय हर विषय और विधा को विज्ञान की
कसौटी पर कसा जा रहा था। आइंस्टीन आदि जैसे वैज्ञानिकों का समाज के ऊपर इतना
प्रभाव था कि हर विषय के लिए विज्ञान की तरह यह कहना जरूरी था कि एक निश्चित
प्रक्रिया का पालन कर परिणाम को दुहराया जा सकता है। इसी कारण इतिहास के क्षेत्र
में भी कहा गया कि इतिहास अपने आप को दुहराता है। फिर इसे साबित करने के लिए
ऐतिहासिक उदाहरणों को ढूंढा गया। नेपोलियन का, हिटलर का, प्रथम विश्व युद्ध का,
द्वितीय विश्व युद्ध का। लेकिन हकीकत यह है कि इन उदाहरणों का इस प्रस्थापना के
संबंध में कोई मतलब नहीं है। अगर जबरदस्ती मायने की तलाश की भी जाए तो कह सकते हैं
कि इतिहास से हम सबक सीख सकते हैं। लेकिन हम अक्सरहाँ इतिहास से कोई सीख नहीं लेते
हैं। ऐसा इसलिए नहीं होता है कि हर आदमी अपने युग में जीता है। हर व्यक्ति के
सामने उसके अपने युग की चुनौती होती है, जिसे वो अपनी दृष्टि से देखने की कोशिश
करता है। हम अपनी बातों को सही साबित करने के लिए इतिहास से उदाहरण लाते हैं और
उसके बल पर अपने विचार को सही ठहराते हैं। इसी में इतिहास से सबक सीखने की बात
होती है। हम कह सकते हैं कि इतिहास में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ दिखती हैं जो मोटे
तौर पर बार-बार नजर आती है। जैसे-विद्रोह की स्थितियाँ, क्रांति की स्थितियाँ,
आधारभूत सामाजिक परिवर्तन की स्थितियाँ। लेकिन ये इतिहास के दुहराने की बात नहीं
है। यह कुछ शक्तियों के आपस में मिलने को स्थिति है। जिससे कुछ ऐसी परिस्थिति बनती
है जिससे विद्रोह या क्रांति होती है। इतिहास के अध्ययन से हम क्रांति की
भविष्यवाणी कर सकते हैं। इतिहास के सकारात्मक और नकारात्मक इस्तेमाल के अलावे इसके
और भी कई सारे पक्ष हैं।
इतिहास का इस्तेमाल बदलते समय के साथ बदलता रहता है। इतिहास का निर्माण
वर्तमान और अतीत के मिलन से होता है। जब वर्तमान का स्वरूप बदलता है, जब हमारी
चुनौतियाँ बदलती है तो उसके सापेक्ष बदलने वाली जितनी भी विधा हैं, उनमें शायद
इतिहास सबसे महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि इतिहास शायद सबसे अधिक विवादास्पद है।
वर्तमान में निरंतर चुनौतियाँ बदलती रहती है, क्योंकि समाज निरंतर सामाजिक और
आर्थिक परिवर्तन की दौर से गुजरता रहता है। चूंकि इतिहास में हमेशा निरन्तरता के
तत्व और परिवर्तन के तत्व का अध्ययन होता है इसलिए यह प्रक्रिया हमेशा कष्टप्रद,
दुखदायी और विवादित रहता है। इसका एक कारण यह भी है कि हम इस दौरान निश्चितता से
अनिश्चितता के दौर में हम गुजरते हैं। इस प्रक्रिया में हम खुद को असुरक्षित महसूस
करते हैं। इसी कारण हम विभिन्न अस्त्र का इस्तेमाल करते हैं अपने बचाव में। इतिहास
भी उन्हीं में से एक अस्त्र है। अपने समय की असुरक्षा से लड़ने के लिए समुदाय अतीत
की मदद लेता है। परिवर्तन के इस दौर में इतिहास का इस्तेमाल हरबा-हथियार,
अस्त्र-शस्त्र के रूप में होता है। और इसी कारण इतिहास विवाद के घेरे में पहुँच
जाता है। इस परिवर्तन से जिसके असुरक्षित होने की संभावना होती है, वे परिवर्तन
रोकना चाहता है। जिसको इस परिवर्तन से लाभ होने वाला होता है वे परिवर्तन को गति देना
चाहते हैं।
हम चाहे या न चाहे लेकिन इतिहास का इस्तेमाल निरंतर होता रहता है और हमेशा
होता रहेगा। हम अपने-अपने नजरिए के हिसाब से इसे दुरुपयोग या उपयोग कुछ भी कह सकते
हैं। उदाहरणस्वरूप विधवा पुनर्विवाह और सतीप्रथा जैसे मसले पर दलील हमेशा अतीत से
ही निकाल गया। इस मसले पर यह केवल नजरिए का ही खेल है कि एकतरफ परंपरावादियों के
लिए सतीप्रथा पर रोक लगाने की मांग धर्म पर हमला तो दूसरी तरफ उदारवादियों के लिए
इस प्रथा का जारी रहना समाज के लिए दुर्भाग्य की बात थी। यहाँ फर्क सिर्फ नजरिए का
है। एक ही मुद्दे पर, एक ही विषय पर दोनों पक्ष के लोग अपने समर्थन में इतिहास का
इस्तेमाल करते हैं। एक बार पक्ष में इतिहास पेश किया जाता है तो उसकी काट में पुनः
इतिहास ही पेश किया जाता है। समाज में जब भी परिवर्तन होता है तो इससे कुछ लोगों
को फायदा होता है और कुछ लोगों की नुकसान। यही कारण है कि दोनों तरफ से अपने-अपने फायदे के इतिहास का
इस्तेमाल किया जाता है। अब इसमें कौन सा उपयोग है और कौन सा दुरुपयोग? हमारा क्या
मानना है? ऐसी परिस्थिति में क्या हम ये मान लें कि इतिहास का जब भी इस्तेमाल होगा, गलत ही होगा।
अथवा ये माँ लें कि इतिहास का हर इस्तेमाल
सही है। क्या हम ये भी मान सकते हैं कि
इतिहास का कोई भी इस्तेमाल सही नहीं है। हमारा मानना क्या होगा?
जब हम इतिहास का अध्ययन करते हैं तो कहीं न कहीं से हम प्रगति का अध्ययन कर
रहे होते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि
समाज निरंतर प्रगतिशील है और इतिहास समाज के इसी प्रगति का अध्ययन है। जब
हम इस बात को स्वीकार करते हैं तो हम ये भी मानते हैं कि गति में बाधक कोई भी तत्व
नकारात्मक माना जाएगा। फिर हम कह सकते हैं कि इतिहास का कोई भी ऐसा इस्तेमाल,
जो प्रगति की प्रक्रिया को रोकता हो, वह मूलतः इतिहास का दुरुपयोग मन जाएगा।
दुरुपयोग इसलिए भी माना जाएगा क्योंकि यह माना जाता है कि मानव समुदाय निरंतर आगे
बढ़ रहा है। इतिहास इसी प्रक्रिया का अध्ययन है और इतिहास का किसी भी रूप में ऐसा
इस्तेमाल जो मानव समाज या समुदाय की इस प्रगति को रोकने का काम करें, इतिहास का
दुरुपयोग है। इतिहास का इस्तेमाल जब प्रगति के लिए होता है तो हम उसे इतिहास का
उपयोग कहते हैं।
उन्नीसवीं सदी में आधुनिक इतिहासलेखन की शुरुआत रांके के द्वारा हुई। रांके
के इतिहासलेखन में हमें इतिहास के उपयोग का स्पष्ट रूप से संकेत मिलता है। रांके
समकालीन राष्ट्रवाद की अवधारणा को सही साबित करना चाहता था। रांके के लिए इतिहास
का मतलब राजनीतिक इतिहास था। उसने यह स्वीकार कि इतिहास अतीत की राजनीति
है। ऐसा क्यों? क्योंकि वह राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अवधारणा को आगे बढ़ाना चाहता
था। जब हम इतिहास के माध्यम से अतीत के अध्ययन
की बात करते हैं तो हम सम्पूर्ण अतीत के अध्ययन की बात नहीं करते हैं। हम
इसमें अतीत के उसी हिस्से का अध्ययन करते हैं जिसका अध्ययन वर्तमान में जरूरी
प्रतीत होता है अथवा आवश्यक हो। जिस समय रांके इतिहासलेखन का कार्य कर रहे थे उस
समय जर्मन राष्ट्रवाद की स्थापना के लिए इतिहास का उपयोग उन्हें आवश्यक लगा था।
दरअसल इतिहासलेखन के माध्यम से इतिहास का इस्तेमाल प्रारम्भिक दिनों से ही होता
रहा है। इतिहास का इस्तेमाल दो तरह से होता है।
एक, खुद-ब-खुद इतिहासलेखन की सम्पूर्ण प्रक्रिया ही एक प्रकार से वर्तमान
की जरूरत के अनुरूप अतीत का इस्तेमाल है। हम वर्तमान की चुनौतियों के अनुरूप ही
इतिहास का अध्ययन करते हैं। यही कारण है कि अलग-अलग समय या कालखंड (तत्कालीन
वर्तमान) के अनुरूप अलग-अलग इतिहासलेखन का काम हुआ और इतिहास के इतने पाठ हो
गए।
दूसरा, जानबूझकर या योजनाबद्ध तरीके से इतिहास का इस्तेमाल।
जब हम सती प्रथा के विवाद में अथवा राम मंदिर विवाद आदि में अपने पक्ष में बात
रखने के लिए अतीत का सहारा लेते हैं तो हम इतिहास को उपयोग और दुरुपयोग के केंद्र
में लाकर खड़ा कर देते हैं। हम निःसंकोच कह सकते हैं कि इतिहासलेखन ही अपने आप में
अतीत का इस्तेमाल है। क्योंकि सम्पूर्ण अतीत के बारे में हमारे पास जानकारी नहीं
होती है।
हम कभी-कभी जानबूझकर भी इतिहास का इस्तेमाल करते हैं, यहाँ इतिहास का दो
प्रकार से इस्तेमाल होता है और दोनों प्रकार के इस्तेमाल में मूलभूत अंतर होता है।
यह मूलभूत अंतर उसके इस्तेमाल के स्वरूप को लेकर होता है।
पहले संदर्भ में इतिहास का इस्तेमाल अविवादित है। वर्तमान की किसी एक घटना,
कोई एक मुद्दा को लेकर हम इतिहास का इस्तेमाल नहीं करते हैं। अतीत के बारे में
जितना कुछ हम जानते हैं उतना कुछ ही हम इतिहासलेखन में इस्तेमाल करते हैं। अतीत का
जितना हिस्सा हमारी जानकारी में आ चुका है, उसे संपूर्णता में सम्पूर्ण वर्तमान के
लिए इस्तेमाल करते हैं इसलिए पहले संदर्भ में अतीत का उपयोग विवाद से मुक्त रहता
है।
मगर
दूसरे संदर्भ अतीत के इस्तेमाल में सबकुछ विवादित है। इसमें हम अतीत के एक बहुत से
छोटे हिस्से का वर्तमान के किसी घटना विशेष को लेकर इस्तेमाल करते हैं। जब हम
जानबूझकर संपूर्णता को ठुकराकर इतिहासलेखन
में चयनित अतीत का इस्तेमाल करते हैं तब इतिहास को लेखर बखेड़ा खड़ा हो जाता है। ऐसी
स्थिति में हम किसी खास घटना की लेकर अतीत के किसी खास हिस्से का इस्तेमाल करते
हैं। सती प्रथा या अयोध्या विवाद आदि में ऐसा ही कुछ होता है। यहाँ इतिहास दो
खेमों में बँट जाता है। इसलिए दूसरे प्रकार से इतिहास के इस्तेमाल में विवाद होता
है। यहाँ इतिहास पक्ष लेना शुरू कर देता है। एक तरफ के इतिहास का दूसरे तरफ के
इतिहास से द्वन्द्व होने लगता है। इस द्वन्द्व में फायदा भले किसी एक पक्ष का हो,
नुकसान हमेशा इतिहास का होता है। यही पर इतिहास के दुरुपयोग की बात हमारे सामने
चली आती है। यह सही है कि प्रगति के मार्ग
में बाधक के रूप में इतिहास का इस्तेमाल, इतिहास का दुरुपयोग है। लेकिन गौर करने
लायक बात यह है कि क्या इतिहास को जबरदस्ती इच्छानुरूप प्रस्तुत कर हम प्रगति की
प्रक्रिया को तेज कर सकते हैं। इतिहास का हवाला देकर परिवर्तन की शुरुआत कर देने
को ही क्या इतिहास की उपयोगिता कह सकते हैं? इतिहास को तोड़ मरोड़ कर यदि हम उसे
प्रगति के पक्ष में खड़ा करने की कोशिश करें और इस तरह प्रगति को गति देने का काम
करें तो यह इतिहास का उपयोग होगा या दुरुपयोग?
जब हम इतिहास के इस्तेमाल की बात करते हैं तो हमारे सामने इतिहास के स्वरूप
की एक परिकल्पना होती है। जब हम अपनी जरूरत या फायदे के लिए अतीत या इतिहास को
तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं तो क्या वह हमारे सामने स्थापित इतिहास के स्वरूप की
परिकल्पना से मेल खाता है? अगर वह इतिहास के स्वरूप की हमारी परिकल्पना से मेल
नहीं खाता है तो क्या हम उसे इतिहास कहेंगे? नहीं हम उसे इतिहास नहीं कहेंगे। वह
कुछ और होगा लेकिन इतिहास नहीं होगा। जब हम अतीत की जानकारी को तोड़-मरोड़ कर पेश
करते हैं तो हम भले कुछ लिख रहे होते हैं मगर इतिहास नहीं लिख रहे होते हैं। इस
क्रिया से हम भले अपनी बात कर रहे होते हैं मगर हम इतिहास की बात नहीं नहीं कर रहे
होते हैं।
जब हम इतिहास के उपयोग और दुरुपयोग की बात करते हैं तो हम अतीत के उस
स्वरूप की बात कर रहे होते हैं जो इतिहासलेखन के मान्य विधियों के द्वारा हमारे
सामने लाया जाता है। इतिहास का दुरुपयोग अक्सरहाँ परिवर्तन की प्रक्रिया को बाधित
करने के लिए होता रहा है। शासक वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए इतिहास का खुलेआम
इस्तेमाल करता है, जो मूलतः इतिहास का दुरुपयोग है। आमतौर पर शासक परिवर्तन का
पक्षधर नहीं होता है। वह परिवर्तन का विरोधी होता है। क्योंकि किसी भी परिवर्तन
में उसकी अपनी स्थिति के बिगड़ने की संभावना समाहित रहती है।
आज के जमाने में इतिहास का मूलतः उपयोग शासक
वर्ग अपने हित में करते हैं। 1945 के बाद द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद
विश्व के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती सामाजिक आर्थिक पुनर्संरचना की थी। अतः आश्चर्य
नहीं कि 1950 के दशक तक आते-आते इतिहासलेखन की मुख्यधारा से राजनीतिक इतिहास को
पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया। उस समय तक इतिहासलेखन की यूरोपियन धारा में रांके की
ही परंपरा कमोबेश चल रही थी। राज्य का निर्माण की जरूरत के कारण, राष्ट्रवाद के
सकारात्मक नकारात्मक प्रभाव के कारण इतिहास राज्य के साथ जुड़ गया था। 1945 के बाद यह
महसूस किया गया कि राष्ट्रवाद पर बहुत ज्यादा जोर देने से हमारी सारी समझ विकृत हो
जाती है। इस समझ के विकसित होने के बाद धीरे- धीरे इतिहासकारों ने इतिहास को राजा-
महाराजा की उपलब्धि गाथा से हटकर आम आदमी के
जीवन और क्रियाकलाप पर केंद्रित हो गया। 1945 के अजेंडा बदल गया। इस
परिवर्तन से शासक वर्ग का क्या भला हुआ। गौर करणर पर निष्कर्ष निकलेगा कि इतिहास
के इस नए स्वरूप के लिए शासक वर्ग ही उत्तरदायी था। क्योंकि वे समझ चुके थे कि अगर
इतिहास का पुराना स्वरुप नहीं बदला तो उनकी स्थिति खतरे में पड़ जाएगी। आम आदमी के
लिए सामाजिक-आर्थिक पुनर्संरचना का मतलब उत्पादन के विभिन्न पक्षों एवं प्रक्रिया
को समझने का प्रयास था। इस उत्पादन में हल-बैल, फैक्ट्री, मशीनरी, मशीन चलाने
वाले, बनाने वाले अर्थात श्रम केंद्र में आ जाता है। इस कारण इतिहास अब शासक वर्ग
से हटकर आम आदमी की ओर आ गया। इतिहास की हमारी समझ वस्तुतः वर्तमान की वो समझ होती
है जो भविष्य की बेहतरी की मंशा से काम करती है। इतिहास की यह सबसे बड़ी उपयोगिता
है। शासक वर्ग को इतिहास की इस उपयोगिता की समझ बखूबी होती है। नए दौर में उनके
शोषण करने के ढंग में परिवर्तन आ गया। अब जरूरत इस बात की थी कि शोषण किया जाए मगर
सावधानी से। शोषण की प्रक्रिया इतनी सरल और कोमल हो जाए कि शोषित भी खुश रहे।
भारतीय
संदर्भ में इतिहासलेखन की परंपरा का अध्ययन करके हम इतिहास के उपयोग-दुरुपयोग और
उपयोगिता की बेहतर समझ विकसित कर सकते हैं। इतिहास मुख्य रूप से शासक वर्ग के
हित को देख कर ही लिखा जाता है। शासक वर्ग की बदलती हुई जरूरतों के अनुरूप ही
इतिहासलेखन की प्रवृति भी बदलती रहती है। भारत में आधुनिक इतिहासलेखन की शुरुआत
उन्नीसवीं सदी में होती है। इस समय भारत के इतिहास को यूरोप के इतिहासकार
उपनिवेशवादी मानसिकता के साथ औपनिवेशिक शासकों के हित को देखकर लिख रहे थे। इसी
कारण उनके लेखन उपनिवेशवादी इतिहासलेखन कहा जाता है। उपनिवेशवादी इतिहासलेखन की
मुख्य विशेषता यह थी कि इसके दो उद्देश्य थे और दोनों राजनैतिक थे।:-
एक, अंग्रेजों के शासन को औचित्य प्रदान करना और उसके कृत्य को सही साबित
करना अर्थात ऐसा वैचारिक माहौल तैयार करना कि शासित को शासन जायज लगे। कहना नहीं
होगा कि अपने इस उद्देश्य में वे पूरी तरह से सफल भी रहे।
उनका
दूसरा उद्देश्य था अंग्रेजों की आर्थिक नीति को सही और शासितों के पक्ष में साबित
करना। उसके द्वारा किए जा रहे नवाचरों को ऐतिहासिक आधार प्रदान करना। ऐसा करना
इसलिए भी जरूरी था कि अंग्रेजी राज में आर्थिक शोषण राज करने से ज्यादा महत्वपूर्ण
था। 1792 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने स्थाई बंदोबस्त की शुरुआत की। यह एक आर्थिक
नवाचार था। इस बन्दोबस्ती को ऐतिहासिक आधार देने के लिए अंग्रेज इतिहासकारों ने
लिखा कि प्राचीन और मध्य काल में भी भूमि का स्वामी राजा ही होता था इसलिए यदि आज
का शासक भी भारत की भूमि पर यदि अपना हक जताता है और नई व्यवस्था लागू करता है तो
इसमें कुछ भी गलत नहीं है। बल्कि भारत की ऐतिहासिक परंपरा और पद्धति का ही पालन हो
रहा है। इस समय औपनिवेशिक अर्थतन्त्र और विदेशी व्यापार अंग्रेजों के द्वारा ही
संचालित थे। इसमे किसी भी तरह से भारतीयों का कोई हस्तक्षेप नहीं था। अंग्रेज इस
व्यवस्था को पूरी तरह से ठीक भी समझते थे। फलतः उपनिवेशवादी इतिहासकारों ने इंडो-रोमन
व्यापार की चर्चा करते हुए कहा कि भारतीय व्यापार हमेशा से विदेशियों के हाथ में
ही केंद्रित रहा है। भारतीयों की कभी भी इसमें बहुत बड़ी भूमिका नहीं रही है। ये
विदेशी व्यापारी ही थे जो भारतीय वस्तुओं को बाहर ले जाते थे, विदेशी बाजारों में
बेच करते थे। जिस समय भारत के वैश्विक व्यापार का संतुलन भारत के पक्ष में था उस
समय भारत का विदेशी व्यापार विदेशी व्यापारियों के हाथ में था तो आज यदि ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के विदेशी को
अपने हाथ में रखकर फला फुला रहा है तो इसमें क्या गलत है। स्पष्ट है कि इस दौर में
भी इतिहासलेखन का काम शासक वर्ग के हित को देखकर ही किया जा रहा था। इस समय के
इतिहासलेखन की परंपरा का एक ही उद्देश्य था और वह था उपनिवेशी शासन की मजबूत करना
और उसे एक न्यायिक जामा पहनाना।
मगर ज्यों-ज्यों भारत में राष्ट्रीयता का आंदोलन
शुरू हुआ, राष्ट्रवादी इतिहासकारों नर इसका जबाव देना शुरू कर दिया। उपनिवेशवादी
इतिहासकारों के प्रतिउत्तर में राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने नये सिरे और संदर्भ के
साथ अतीत की व्याख्या शुरू की। प्रसिद्ध राष्ट्रवादी इतिहासकार के पी जायसवाल ने
इस समय घोषणा की कि छठी सदी ईसा पूर्व में जब इंग्लैंड के लोग जंगलों में आदिम
अवस्था में जीवन जी रहे थे उस समय भारत में लोकतान्त्रिक गणराज्य का अस्तित्व था।
उनका ये भी कहना था कि इस समय इंग्लैंड में ऐतिहासिक काल शुरू भी नहीं हुआ था। इसी
तरह 1916 में आर के मुखर्जी ने कहा था कि प्रचीन भारत में भारतीय जहाजरानी उन्नत
अवस्था में थी और भारत में बड़े-बड़े जहाज बनते थे जिसके माध्यम के विदेशी व्यापार
होता था। अन्य कई राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने भी इसी तरह के उदाहरणों के द्वारा
ऐतिहासिक आधार पर भारतीय अतीत की गौरवशाली व्याख्या प्रस्तुत की। अतीत का
पुनर्निर्माण या इतिहास की रचना हमेशा राजनीति से प्रेरित होता है। राष्ट्रवादी
इतिहासकार भी इतिहास का सहारा लेकर उपनिवेशवादी इतिहासकारों के निष्कर्ष के खिलाफ
एक आंदोलन खड़ा करना चाहते हैं।
1947 के बाद भारतीय इतिहासलेखन की धार में फिर
परिवर्तन आया, किन्तु राष्ट्रवादी इतिहासलेखन न केवल आज भी जारी है बल्कि पुष्पित
और पल्लवित भी हो रहा है। 1947 के पूर्व के राष्ट्रवादी इतिहासलेखन और उपनिवेशवादी
इतिहासलेखन दोनों में इतिहास को एक विशेष नजरिए से देखा गया। इस विशेष नजरिए में
इतिहास एक विषय नहीं हमलावर हथियार बन जाता है।
आजादी
मिलने के बाद इतिहासलेखन की प्रवृति में बदलाव आया क्योंकि नये शासक वर्ग के पास
शासन का नया अजेंडा या मुद्दा था। वह अजेंडा था देश के आर्थिक पुनर्निर्माण का।
सत्तारूढ़ काँग्रेस पार्टी भी देश के आर्थिक पुनर्निर्माण की बात कर रही थी। जिसके
परिणामस्वरूप 1947 के बाद भारतीय इतिहासलेखन में आर्थिक इतिहास सबसे महत्वपूर्ण
विषय के रूप में उभर कर सामने आया। 1950 के पूर्व भारत में राजनैतिक इतिहास पर जोर
दिया जाता था। उस समय देश अपनी आजादी के लिए राजनैतिक संघर्ष कर रहा था, किन्तु अब
जब देश को आजादी मिल चुकी थी तो राजनैतिक इतिहास की प्रमुखता घट गई थी। अब शासक
वर्ग को अपनी स्थिति को मजबूत करनी थी। इसके लिए देश का पुनर्निर्माण किया जाना
आवश्यक था, नये शासक को यह दिखलाना था कि
अंग्रेज जिस भारत को छोड़ गए हैं वह देश गुलामी की जंजीर में फंस कर कितना पिछड़ गया
है। भारत की अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए देश का आर्थिक निर्माण होना जरूरी है
और इसके लिए देश में माहौल बनाने की आवश्यकता है। 1970 के दशक तक आते-आते किसानों
के इतिहास पर बल दिया जाने लगा, क्योंकि शासक वर्ग ने महसूस करना शुरू कर दिया था
अब आर्थिक और राजनैतिक रूप से देश में किसान महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। 1967 के
आमचुनाव में सत्तारूढ़ काँग्रेस पार्टी को देश के कई राज्यों में किसानों की
नाराजगी के कारण हार का सामना करना पड़ा था। इससमय काँग्रेस को पराजित करने के लिए
किसान संगठनों आपसी राजनैतिक गठजोड़ कायम कर लिया था। इस प्रकार इन उदाहरणों से स्पष्ट
हो जाता है कि अन्य देशों की तरह भारत में भी इतिहासलेखन हमेशा शासकों की राजनैतिक
जरूरतों से अनुप्राणित होता रहा है। उसकी दिशा और दशा हमेशा वर्तमान की जरूरतों
खासकर राजनैतिक जरूरतों के अनुरूप निर्धारित होती रहती है। आज भारत में भी जेंडर
जस्टिस की बात होने लगी है उसके अनुरूप फेमिनिस्ट इतिहासलेखन पर जोर दिया जाने लगा
है। आज से 15-20 वर्ष पूर्व सामाजिक इतिहास पर जोर पड़ा। फिलहाल दस-पंद्रह वर्षों
से अलग-अलग जातियों का इतिहास लिखा जाने लगा है। विभिन्न संप्रदायों के हित में भी
अब इतिहासलेखन होने लगा है। बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि विवाद जैसे मसलों आदि पर
दर्जनों ऐतिहासिक किताबें लिखी जाने लगी है। इतिहासलेखन की परंपरा को राजनीतिज्ञ
और शासक समूह के लोग अपने जरूरतों के अनुरूप निर्देशित करते रहते हैं। इतिहासलेखन
की जो परंपरा है उसे शासक वर्ग अपनी राजनीति के तहत निरंतर प्रभावित करते रहते
हैं। राज्य की भूमिका शोषणकारी होती है। राज्य सिर्फ कुछ लोगों के हितों की रक्षा
करती है। आज छापेखाने के युग में भी राज्य की निर्णायक भूमिका निभाती है, वे ही ये
तय करते हैं कि क्या लिखा जाए और क्या न लिखा जाए। यह केवल इतिहास में नहीं होता है।
साहित्य के स्वरूप को भी बहुत हद तक शासक ही निर्देशित करते हैं। यहाँ हमारे मन
में एक सवाल उठ सकता है कि जब छापाखाना नहीं था साहित्य लेखन राज्य के संरक्षण में
होता था मगर आज ऐसा क्यों होता है? इसका उत्तर ये है कि व्यक्ति राज्य के सामने बिल्कुल गौण पड़ जाता
है। राज्य एक व्यवस्थित तंत्र है और यह वैचारिक सहमति प्राप्त किया हुआ संस्था है,
जबकि इसके विपरीत व्यक्ति का अस्तित्व गौण होता है। यही कारण है कि जब राज्य हमें
परेशान करता है तो उसे हमारी सहमति प्राप्त होती है। इतिहास का इस्तेमाल भी शासक
वर्ग अपने विचार को फैलाने के लिए करते हैं। इतिहास की व्याख्या के जरिए अपनी
वर्चस्वता स्थापित करने की कोशिश करते हैं। राज्य कभी भी शासितों का अपना नहीं
होता है, वह हमेशा विरोध में ही खड़ा होता है। पहले यह लोगों को वैचारिक रूप से
शोषण के लिए तैयार करता है और फिर आर्थिक शोषण करता है। उसके इस शोषण की प्रक्रिया
में इतिहास उसके मददगार के रूप में खड़ा रहता है।
इतिहास को राजनीतिज्ञ या शासकवर्ग अपने हित में
इस्तेमाल करते रहे हैं। इसके इस्तेमाल के दो पक्ष हैं-
1 सकारात्मक:- इसे हम इतिहास का उपयोग कह सकते हैं। इसमें साधारणतया
इतिहास का इस्तेमाल परिवर्तन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए करते हैं। किसी भी
कालखंड में समाज या अर्थतन्त्र में राज्य द्वारा लाए गए परिवर्तनों की मजबूत करने
के लिए इतिहास का इस्तेमाल सकारात्मक होता है। कभी भी किसी भी महत्वपूर्ण सामाजिक
परिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिए इतिहास के साक्ष्यों की मदद ली जाती है। जैसे
उन्नीसवीं सदी में बंगाल और महाराष्ट्र के
पुनर्जागरण आंदोलनों में इतिहास की मदद ली गई। इसी तरह अस्पृश्यता के खिलाफ
चलाए गए आंदोलनों में भी इतिहास के साक्ष्यों को बतौर प्रमाण पेश किया गया। हाल के
वर्षों में जाति प्रथा के मुद्दे से भी इतिहास जुड़ा हुआ है। इन जैसे सामाजिक
परिवर्तन की प्रक्रियाओं से इतिहास का जुड़ाव जरूरी होता है, क्योंकि समाज अक्सरहाँ
परिवर्तन का पक्षधर नहीं होता है। समाज हमेशा यथास्थिति बनाए रखने में विश्वास
करता है। इसलिए किसी भी तरह का सामाजिक परिवर्तन तभी लाया जा सकता है जब उसके लिए
लोगों को मानसिक तौर पर तैयार कर लिया जाए। इसी क्रिया में इतिहास की मदद ली जाती
है। सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में इतिहास के सहयोग से परिवर्तन को पहले
मानसिक तौर पर तैयार किया जाता है। यही पक्ष कहलाता है। समाज में निरंतर परिवर्तन
के तत्व अपना अस्तित्व बनाए रहते हैं। राजसत्ता के द्वारा इतिहास के सहयोग इस
परिवर्तन को गति देने का काम किया जाता है।
2 नकारात्मक:- कभी-कभी राजसत्ता परिवर्तन की
प्रक्रिया को रोकने के लिए भी इतिहास का इस्तेमाल करती है। परिवर्तन को लेकर दूसरे
तरह की प्रतिक्रिया तब दिखती है जब सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया तीव्र गति से
संचालित होने लगती है। मार्क्स के अनुसार समाज में परिवर्तन के दौरान एक प्रकार का
द्वन्द्व पाया जाता है। सामाजिक संरचना हो रहे बदलाव के पहले चरण में द्वन्द्व
बहुत तीव्र नहीं होता है, इसकी गति अपेक्षाकृत धीमी होती है। तब राजसत्ता अक्सरहाँ
इतिहास का इस्तेमाल कर बदलाव की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का काम करती है। मगर
इतिहास में अनेक ऐसे बिन्दु देखने को मिलते हैं जहां परिवर्तन की प्रक्रिया काफी
तीव्र हो जाती है और ऐसी स्थिति में राजसत्ता परिवर्तन को रोकने का प्रयास करती
है। यह परिवर्तन सामाजिक आर्थिक आदि किसी भी तरह का हो सकता है।जैसे धर्म का
इस्तेमाल। यहाँ यह कार्य भी राजसत्ता ऐतिहासिक साक्ष्यों में से धर्म से जुड़े
प्रमाण इकट्ठा कर करती है। अर्थात इस प्रक्रिया में भी इतिहास की ही मदद ली जाती है।
इसे हम निश्चित रूप से इतिहास का दुरुपयोग कहेंगे। इतिहास के साक्ष्य जुटाकर अपनी
पुरानी स्थिति को मजबूत करने का प्रयास इतिहास का दुरुपयोग है।
हम
कह सकते हैं कि समाज में परिवर्तन लाने के
लिए इतिहास का इस्तेमाल उसका उपयोग है, लेकिन जब इतिहास का इस्तेमाल राजसत्ता
परिवर्तन की प्रक्रिया को रोकने के लिए करती है तो उसे हम इतिहास का दुरुपयोग
कहेंगे। इतिहास के उपयोग और दुरुपयोग के बीच एक बड़ी पतली सी विभाजक रेखा होती है।
मगर जिसके आधार पर समाज के परिवर्तन कई प्रक्रिया प्रभावित होती है।
राजसत्ता
सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए इतिहास का इस्तेमाल करती है तो वह इतिहास का उपयोग
होगा क्योंकि इतिहास निरंतर प्रगति का अध्ययन है। लेकिन जब इतिहास परिवर्तन के
विरोध में खड़ा होने लगता है तो वह अपना दुरुपयोग करने लगता है। उपयोग हमेशा समुदाय
के हित के लिए होता है जबकि दुरुपयोग वर्ग-विशेष के फायदे के लिए होता है। यानि
सम्पूर्ण समुदाय के हित के लिए इतिहास का इस्तेमाल उसका उपयोग या सदुपयोग कहलाएगा।
इसके विपरीत जब व्यक्ति विशेष, वर्ग विशेष या समुदाय विशेष आदि के हित में इतिहास
को खड़ा करने का प्रयास किया जाता है तो वह इतिहास का दुरूपयोग कहलाएगा।
राजसत्ता
के अलावे इतिहास का उपयोग और दुरुपयोग कुछ अन्य कारणों से भी होता है। जिसमें
सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण है- किसी पुरातन संस्था या विचार को निरंतर बनाए रखने के
लिए अथवा उसमें परिवर्तन की वकालत करने के लिए। इन संस्थाओं और विचारों में सबसे
महत्वपूर्ण जाति प्रथा है। आज भी हमारे समाज में ‘मनु’ की लगातार चर्चा होती रहती
है। कभी गाली देने के लिए तो कभी प्रशंसा करने के लिए लोग ‘मनु’ का इस्तेमाल करते
रहते हैं। आज के युग में जब मनु हमारी घृणा या आदर का विषय बनता है तो इतिहास के
एक छात्र के रूप में हमारे सामने कुछ प्रश्न खड़ा हो जाता है। क्या यह उचित है कि
आज से लगभग दो हजार साल पहले लिखी गई पुस्तक को आज के समाज के संदर्भ में इतना
महत्व दिया जाए? क्या आज भी मनु प्रासंगिक है? जब इतिहास के द्वारा हम यह साबित
करते रहे हैं कि हमारा समाज निरंतर प्रगतिशील है। साथ ही साथ जब हम यह भी मानते
हैं कि सामाजिक आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया के साथ-साथ विचारों में भी परिवर्तन
होता रहता है। ऐसी स्थिति में मनु और उसके विचार हमारे समाज के लिए प्रासंगिक नहीं
हो सकता है। लेकिन यदि आज भी मनु और मनुस्मृति अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है तो
हमें यह भी मानना होगा कि हजारों सालों में भी हमारे समाज के भौतिक आधार में कोई
परिवर्तन नहीं आया है। मार्क्स ने यूरोप में प्रगति के जो चरण बताए थे, एशिया
(भारत) के लिए उससे अलग चरण ‘एशियाई उत्पादन की पद्धति’ की चर्चा की थी। इस एशियाई
अवधारणा के पीछे मूल मान्यता यह थी कि एशियाई समाज में हजारों वर्षों तक कोई भी
परिवर्तन नहीं हुआ है। खासकर भारत में सबसे विशिष्ट चीज थी-परिवर्तन विहीन ग्रामीण
समाज। ऐसी स्थिति में क्या मार्क्स की बात से सहमत होते हुए माना जा सकता है कि हजारों वर्षों से भारतीय समाज परिवर्तन विहीन
रहा है। अथवा ये कि मार्क्स की बातें तथ्य पर आधारित नहीं है और अन्य समाज की तरह
भारतीय समाज भी परिवर्तनशील रहा है। अधिकतर इतिहासकार दूसरी मान्यता या धारणा से इत्तेफाक
रखते हैं।
भारत
का समाज एक ऐसा समाज है जहां आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया की
निरन्तरता कभी समाप्त नहीं हुई है। एक समय भारतीय समाज चतुर्वर्ण व्यवस्था पर
आधारित था। फिर यह चतुर्वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था में बदल गई। जाति व्यवस्था भी
स्थाई या बंद व्यवस्था नहीं बनी रही। इतिहास के विकास के क्रम में नई जातियाँ
लगातार बनती जा रही है। जिससे जातिगत संरचना में लगातार परिवर्तन होता रहा है। इन
लगातार बनती नई जातियों के पीछे लोगों की बदलती आर्थिक स्थिति सबसे बड़ा कारण बन कर
सामने आई। भारत में एक समय के बाद जातियाँ काफी हद तक व्यवसाय से जाकर जुड़ गई।
चूंकि व्यवसाय वंशानुगत था इसलिए जातियाँ भी वंशानुगत हो गई। किन्तु हरएक जातियाँ
अभी भी चतुर्वर्ण के किसी एक वर्ण पर केंद्रित थी। भारत का कोई कबीलाई समाज जब भी
भारतीय समाज की मुख्यधारा से जुड़ा तो एक नई जाति का निर्माण हो गया। किसी विदेशी
कबीले का जब भारतीय भूमि पर स्थाई निवास हो गया तो उन्हें भी जाति की संरचना में
समाहित कर लिया गया। आभीर जनजाति बारहवीं सदी में मुख्यधारा में शामिल हुआ और उसे
एक जाति का दर्जा दे दिया गया। इस समय तक जातियों को पाँच वर्ण में बाँट दिया गया
था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अस्पृश्य। मूल कबीले में जो परिवार जिस
पेशा से जुड़े हुए थे। उसे उसी से मेल खाते वर्ण में शामिल कर दिया गया।
हमारे समाज में जाति व्यवस्था का आज वो रूप नहीं
है जो आज से दो हजार साल पहले था। आज की जाती प्रथा की परेशानी का सबब उनकी अपनी
अलग-अलग सोच है। मनु को आज के दिन विवाद के केंद्र में लाना बहुत उचित नहीं है।
मनु ईसा पूर्व दूसरी पहली शताब्दी में उस समय के समाज के लिए एक सामाजिक संहिता का
निर्माण कर रहा था, जिसे तीसरी-चौथी शताब्दी में ही लोगों ने खारिज कर दिया था।
कलयुग की पहली चर्चा कुछ पुराणों और महाभारत के अंतिम चरण में होने लगती है। जिसकी
विशेषता ही यह बताई गई है कि लोग अपने वर्ण के लिए निर्धारित कर्म करना छोड़ देंगे।
पुराणों और महाभारत की रचना चौथी सदी के प्रारम्भिक वर्षों में हुई थी। अठारह
महापुराण की रचना का समाप्ति वर्ष भी यही कालखंड है। यही वो समय है जब ऐसे
ऐतिहासिक प्रमाण इतिहासकारों को मिलने शुरू हो जाते हैं, जैसे- जब वैश्यों ने कर
देना बंद कर दिया और शूद्रों ने श्रम करना छोड़ दिया। जबकि भारतीय समाज में
अर्थनीति और राजनीति दोनों वैश्यों की पूंजी और शूद्रों के श्रम पर आधारित था।
स्पष्ट है कि मनुस्मृति में जिनके विरुद्ध कड़े विधान बनाए गए, उन्होंने मनुस्मृति
के विधान के खिलाफ विद्रोह कर दिए। तीसरी-चौथी सदी में वैश्यों और शूद्रों ने
सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था और संरचना को ही चुनौती दे दी। दरअसल मनु के नियम अपने
जमाने में ही नकार दिए गए।
सीधी
बात तो यह है कि हर आंदोलन, खासकर सामाजिक आंदोलन, प्रतीकों का इस्तेमाल अपने
आंदोलन में करते रहते हैं। दलित आंदोलन ने इसी रूप में मनुस्मृति को एक प्रतीक के
रूप में विरोध का आधार बनाया है। यह उनके सामाजिक आंदोलन की एक जरूरत है। अब इसे
हम या आप इतिहास का उपयोग या दुरुपयोग कुछ भी कह सकते हैं।
इतिहासकार
बिपिनचन्द का मानना है कि आधुनिक भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगे उसी क्षेत्र में
हुए हैं जहां आधुनिक इतिहास की पढ़ाई होती रही है। बिपिनचन्द का यह भी मानना है कि
हिन्दू-मुस्लिम दंगे का वैचारिक आधार इतिहास के विकृत पाठ से तैयार होता है। वैसे
तो दंगा अपने स्वरूप के स्तर पर स्थानीय कारणों, घटनाओं, परिस्थितियों आदि पर
आधारित समुदायों, गुटों, पक्षकारों का आपसी संघर्ष होता है, लेकिन दंगे के पीछे की
मानसिकता की एक वैचारिक पृष्ठभूमि भी होती है। वैचारिक स्तर पर जब एक समुदाय के
लोगों के दिमाग में दूसरे समुदाय के लोगों के प्रति वैमनस्यता की भवन भर देते हैं।
तभी दंगे की संभावना तैयार होती है। जब धर्म को राजनीति का आधार बनाया जाता है
अथवा राजनीति के लिए धर्म को औजार बनाया जाता है तो इतिहास की मदद से ही धर्म पर
आधारित ऐसी विभाजनकारी मानसिकता तैयार की जाती है, जिसमें हर विधर्मी काफिर अथवा
आतंकी नजर आता है।
आधुनिक
इतिहास कई खेमों में बंटा हुआ है। ये सभी एक-दूसरे के पक्ष-विपक्ष में खड़े हैं।
इसमें कौन सही है और कौन सही नहीं है इसकी पड़ताल करने के पूर्व यह समझ विकसित कर
लेना जरूरी होगा कि जब इतिहास समाज को आगे बढ़ाने में मदद करता है तो वह इतिहास का
उपयोग है। लेकिन जब यही इतिहास समाज को पीछे की ओर धकेलने का काम करने लगता है तो
हमें सावधान हो जाना चाहिए, क्योंकि यही से इतिहास का दुरुपयोग शुरू हो जाता है।
जब अंग्रेजों ने भारत में अपना राज कायम किया तो उन्होंने इतिहासलेखन के जरिए ही
‘फूट डालो शासन करो’ की नीति को स्थापित करने का काम किया। इस तरह की उद्देश्य
वाली पहली पुस्तक जेम्स मिल की ‘हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश रूल इन इंडिया’
थी, जो 1817 में छपी थी। इस पुस्तक में भारतीय इतिहास को तीन कालखंड में बाँटा गया
था- 1- हिन्दू काल, 2- मुस्लिम काल और 3-
ब्रिटिश काल। ये नामकरण तार्किक नहीं हैं, जेम्स मिल नामों को लेकर यदि तार्किक
होते तो भारतीय इतिहास के तीसरे कालखंड का नामकरण ‘ईसाई काल’ के रूप में करते। अगर
प्राचीन काल के शासक को हिन्दू मानकर हिन्दू काल बोला गया और मध्य काल के शासक को
मुसलमान मानकर मुस्लिम काल बोला गया तो फिर उन्नीसवीं सदी के शासक के ईसाई होने के
कारण उस कालखंड को ईसाई काल क्यों नहीं बताया गया। लेकिन उनके द्वारा ऐसा नहीं
किया गया। आज उनकी इस अवधारणा को कोई नहीं मानता। प्राचीन काल में हिन्दू शब्द
प्रचलन में ही नहीं था। फिर उस काल को आप किस आधार पर हिन्दू काल कह सकते हैं। दरअसल
जेम्स मिल भारतीय इतिहास के काल विभाजन और उसके नामकरण के माध्यम से ‘फूट डालो
शासन करो’ की नीति के लिए आधार तैयार कर रहे थे। इतिहास की मदद से संप्रदायवाद को
बढ़ावा दिया जाता है, इसका ये एक सटीक उदाहरण है। अन्य कई नकारात्मक चीजों में भी
इतिहास का सहारा लिया जाता है। भारतीय संदर्भ में इतिहास के दुरुपयोग का एक और
उदाहरण देखने को मिलता है। वह दुरुपयोग आंचलिकता या अंचलवाद से जाकर जुड़ जाता है।
भारत के विभिन्न प्रदेशों में या प्रदेश के अंदर अलग-अलग सांस्कृतिक समूहों के बीच
वैमनस्यता मिलती है, क्योंकि भारत में अभी भी राष्ट्रवाद की अवधारणा बहुत मजबूत
नहीं हुई है। विभिन्न प्रांतों और अंचलों के बीच के बीच राजनैतिक और भौगोलिक
कारणों से प्राचीन काल से ही संघर्ष होते रहे हैं। आधुनिक भारत में भी कतिपय
कारणों से राज्यों के बीच तनातनी या विवाद की संभावना बनी रहती है। जैसे कावेरी जल
विवाद से कर्नाटक और तमिलनाडु के किसानों के जीवन और मरण का प्रश्न जुड़ा हुआ है।
यही कारण है कि दोनों पक्ष से जुड़े हुए
लोगों ने इतिहास से ढूंढ-ढूंढ कर अपने-अपने पक्ष में प्रमाण पेश करने की कोशिश की
है। सम्पूर्ण पल्लव और चालुक्य के दो सौ वर्ष के संघर्ष को उन्होंने कर्नाटक और
तमिलनाडु का संघर्ष बना दिया। आपसी वैमनस्यता को तेज करने के लिए उन्होंने इतिहास
से चुन-चुन कर प्रकरण निकाले।
कभी-कभी
आंचलिक वैमनस्यता के लिए भी इतिहास का उपयोग दुरुपयोग के रूप में किया जाता है।
1969 में आर सी मजूमदार की 1857 के विद्रोह पर एक पुस्तक छपी। मजूमदार ने अपनी उस
पुस्तक को उस रॉयल बंगाल टाइगर को सौंपी जिसने उड़िया चूहे को अपने पैरों तले रौंदा
था। मजूमदार ने ऐसा इसलिए किया था क्योंकि 1967 में उड़ीसा में बंगाल विरोधी आंदोलन
हुआ था। इतिहासलेखन में आंचलिकता के मुद्दे पर दुरुपयोग का यह एक स्पष्ट उदाहरण
है।
इतिहासलेखन
का इस्तेमाल जातीय (जैसे एक भाषा, एक नस्ल, एक संस्कृति के लोगों के द्वारा)
मामलों में भी होता है। विभिन्न वर्गीय लोगों के ग्रुप कान्फ्लिक्ट में भी
इतिहासलेखन का दुरुपयोग होता है। सोवियत संघ के टूटने के बाद जो भी देश बने वे सब
एथनिक नेशन्स हैं। सबों की अपनी-अपनी ऐतिहासिक परंपरा है जिसके आधार पर
कान्फ्लिक्ट विकसित होते हैं। मध्य-पूर्व में तो पूरी की पूरी लड़ाई इतिहास पर
आधारित है। यासर अराफ़ात के सारे आंदोलन की भूमिका इतिहास से बनती थी। हम निजी तौर
पर भी जाने अनजाने अपनी बातों की पुष्टि के लिए इतिहास के पन्ने से कुछ लाकर अपने
पक्ष में उछाल देते हैं। गीता और रामचरित
मानस के उद्धरण भाषणों में सबसे ज्यादा उद्धरित होते रहे हैं। दोनों ग्रंथ हमारी
परंपरा के वाहक हैं। अभी हाल के वर्षों में ऐसा कई बार हुआ है जब इसको लेकर विवाद
और बहस देखने को मिला है। इतिहास जबतक सामाजिक प्रगति के मार्ग में बाधक नहीं है
तबतक उपयोग है। लेकिन जब यह सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को बाधित करें तो यह
दुरुपयोग है। इसी क्रम में इतिहास संप्रदायवाद, अंचलवाद, जातिवाद और इसी प्रकार के
अन्य नकारात्मक अवधारणाओं को मजबूती प्रदान करता हैक, ऐसे क्रम में इतिहास विकृत
होता रहता है। इतिहास के किसी भी तथ्य को यदि उसके संदर्भ से बाहर लाकर इस्तेमाल
किया जाए तो ये इतिहास का उपयोग नहीं हो सकता है, ये इतिहास को विकृत करने का
प्रयास होता है। सभी चीजें अपने संदर्भ में ही सही होती है, यदि संदर्भ हटा दिया
जाए तो इस्तेमाल दुरुपयोग हो जाता है।
ऐतिहासिक
विश्लेषण की जो मान्य पद्धतियाँ हैं यदि उस मान्य पद्धतियों को नजरंदाज कर अतीत के
बारे में यदि विश्लेषण का प्रयास किया जाता है तो उससे भी इतिहास को विकृत किया
जाता है। ऐसा तब होता है जब हम अपनी परंपरा को इतिहास का दर्जा देने लग जाते हैं।
अर्थात हमारे पूर्वजों ने जिन कृतियों को रचा या फिर जिन धर्मों की स्थापना की, जब
उसे हम इतिहास मानने लग जाते हैं, तो इस विषय को लेकर परेशानी शुरू हो जाती है।
मौजूदा
समय में इतिहास एक ऐसे मरहले से गुजर रहा है जहीं इतिहासकारों में आपसी
प्रतिद्वंद्विता बढ़ रही है। आज इतिहास का कोई एक पाठ नहीं है कोई एक रूप नहीं है।
आज इतिहास अलग-अलग रूप में अलग-अलग दृष्टिकोण के अनुसार विकसित हो रहा है। इसी में
से इतिहास का एक पाठ है- Absences in History (इतिहास
में अनुपस्थितियाँ) का। इसके माध्यम से इतिहासकारों का एक समूह यह बताने का प्रयास
करते हैं कि इतिहास के पन्नों में बहुत से समूहों को कोई जगह ही नहीं दी गई है, उन्हें हाशिए पर रख
छोड़ा गया है। यह आरोप अमेरिका में सबसे पहले लगाया गया। अमेरिका के अश्वेत (black) लोगों ने प्रोटेस्ट करते हुए दुनिया
को बताया कि अमेरिका के अकादमिक जगत की मुख्यधारा की पुस्तकों, विषयों में अश्वेत
लोगों के लिए कोई जगह ही नहीं बनाई गई है। उन्नीस सौ सत्तर के दशक में उन लोगों ने
नए सिरे से अमेरिका का इतिहास लिखना शुरू किया। उनका यह भी मानना था कि अश्वेत
लोगों का इतिहास कोई श्वेत (white) लिख ही नहीं सकता है।
चूंकि अश्वेत की मानसिकता को कोई अश्वेत ही समझ सकता है इसलिए किसी श्वेत के
द्वारा लिखा गया अश्वेत का इतिहास उन्हें कतई स्वीकार्य नहीं है। उनके कहने का अर्थ
था कि वे लिखेंगे तो अमेरिका का इतिहास मगर इस बार इसके केंद्र में अश्वेत को रखा
जाएगा। यहाँ हम कह सकते हैं कि इतिहासलेखन
की शुरुआत इन्होंने नेक इरादे से की लेकिन जैसे ही इन्होंने खुद को केंद्र में
रखा, ये खुद अपनी स्थापना के खिलाफ चले गए। यहाँ वे जिस गलती को ठीक करने आए थे,
उसे ही गलत कर बैठे। इसी तरह ‘अभी तक का जो भी इतिहास है, वह पुरुषों के द्वारा
लिखित है’, यह मानते हुए नारीवादी और महिला इतिहासकारों ने भी स्थापित इतिहास को
चुनौती देने का काम किया है। दुनिया की आधी आबादी को इतिहास में पाँच प्रतिशत जगह
भी नहीं दी गई है। इसके साथ ही साहित्य की तरह इतिहास के क्षेत्र में औरतों को
केंद्र में रखकर, उनके सवालों के आधार पर, उनके नजरिए के अनुसार इतिहासलेखन की
शुरुआत की गई। इसी प्रकार अपने देश में दलितों ने भी अपने नजरिए और अपने सवालों के
आधार पर इतिहासलेखन का काम शुरू किया है और इतिहास लिखा है। आज भिन्न-भिन्न कई
जातियों के नजरिए से भी इतिहास लिखा जा रहा है। इन नए कलमों से मुख्यधारा के
इतिहास को चुनौती दी जाने लगी है। ये प्रक्रिया आहिस्ते-आहिस्ते तेज होती जा रही
है।
आज से नब्बे सौ साल पहले इतिहास का इस्तेमाल राष्ट्रवाद की अवधारणा को
विकसित करने के लिए किया गया। आज यदि नारीवादी, दलित विमर्श के लेखक, इतिहासकार या
जातीय अस्मिता के निर्माण के लिए लिखने वाले लोग जब सामाजिक सुधार के दौर में
इतिहास का इस्तेमाल चेतना जगाने के लिए करते हैं, तो यह इतिहास का उपयोग माना जाएगा कि दुरुपयोग। कभी-कभी
उपयोग और दुरुपयोग की हमारी सारी समझ समय के सापेक्ष बदलती रहती है। हमारी सारी कवायद
वर्तमान की जरूरतों के अनुरूप अपना रंग बदलती रहती है। एक दौर में इतिहास का जो इस्तेमाल
सकारात्मक माना जाता है वही किसी दूसरे वक़्त या दौर में नकारात्मक हो जाता है। इतिहास
का कोई भी रूप शाश्वत नहीं है। आज जो सही है वह कल गलत हो जाएगा। आज जो अपर्याप्त है
उसे कल पूरा कर दिया जाएगा। कल जिसे बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया था आज उसे नाप कर कम कर
दिया जाएगा।