Saturday, November 24, 2012

बुढ़िया

एक शब्द है - बुढ़िया
आदर के बिना संबोधित 
रिश्तों की दुनिया से बहिष्कृत 
प्यार के दो बोल के लिए भटकती 
भिखमंगे की सी 
स्थिति में 
दया की दरकार लिए
दर-दर की ठोकर खाती।
समझो
मेरी दादी वही हो गयी है
बुढ़िया
माँ की नज़रों में
वह काम नहीं कर सकती है
इसलिए
पापा कहते है
मुफ्तखोर
फ्लैट के उस कोने में
जहाँ
मै टॉमी को बांधता था
बिस्तर लगा है
बुढ़िया
यानि मेरी दादी का
माँ की जो साड़ी
पहले कामवाली बाई ले जाती थी
अब पहनती है
बुढ़िया
यानी मेरी दादी
कल जब सिन्हा आंटी आयी थी
तो
माँ ने कहा था
उनके गांव की है
बुढ़िया
वह हमेशा राम - राम जपती रहती है
डेली सोप के समय
माँ चीखती है
पागल बुढ़िया
चुप रहो
मै उससे मिल नहीं सकता
वह बीमार है
स्कूल से लौटने पर
उसे दूर से देख सकता हूँ
उसके हाथ कांपते रहते है
वह दिन में कई बार
अपनी गठरी खोलती है
टटोलती है
मानों कुछ
खोज रही हो
और फिर बंद कर देती है
माँ कहती है
काफ़ी भद्दी और लालची है बुढ़िया
एकदम देहाती गंवार है
मगर
बुढ़िया मेरे लिए आश्चर्य है
जब मुझे पता लगा
कि
वह मेरे पापा की माँ है
तो
मुझे विश्वास नहीं हुआ
क्या माँ ऐसी होती है ?
एक दिन
उसने मुझे
पास बुलाकर एक मिठाई दी
और कहा -" खा "
मै खाने को ही था
कि
माँ ने आकर
मेरे हाथ झटक दिए
कहा -
जहर है मत खा
फिर बुढ़िया से कहा
इस मिठाई की तरह
तुम्हारा दिमाग भी सड़ गया है
वह रोज नहीं नहा पाती
वह बदबू देती है
उसके बर्तन अलग हैं
महाराज उसके लिए
अलग से खाना बनाता है
बुढ़िया यानी
मेरी दादी से
कोई बात नहीं करता
सिवाय उस महरी के
जो झाड़ू लगाने आती है
फिर भी
वह बड़बड़ाती रहती है
कभी-कभी
वह रोने लगती है
जबकि
उसे कोई मारता नहीं है
माँ कहती है
नाटक
मैंने जब माँ से पूछा -
बुढ़िया
यहाँ क्यूँ आई है
तो
माँ ने हँसते हुए कहा -
मरने के लिए!

Friday, November 23, 2012

यहाँ जन गण भी भाग्यविधाता है

चलो निकलो घर से
छुटभैये कवि
अपनी दो टके की
सतही कविता के साथ
इस क्रांति में वे ही असरदार होंगे
खालिस तुकबंदी भी चलेगी
और पैरोडी भी
विचारधारा विहीन इस उथल पुथल के दौर में
कोई भी स्थापित कवि
क्रांति के गीत नहीं गाएगा
उन्होंने अपने शब्द छुपा लिए हैं।
माँगने पर ठुकरा देते हैं।
क्योंकि कुर्सियां बढ़ा दी गई है कतार में
रुका पड़ा है सम्मान समारोह उनके इंतजार में
अब सारी जिम्मेवारी तुम्हारे ऊपर
तुम जो अबतक पढ़े नहीं गए
तुमने जो कभी अच्छा नहीं लिखा
चाहकर भी दोयम दर्जे से निकल नहीं पाए
अपनी समझ में आनेवाली
साधारण सी कविता में पिरो दो
हमारे साधारण से सारे दुःख दर्द।
ऐसी कविता बिना आलोचकों के सिफारिश से
पहुँच सकती है हम तक
फंसती नहीं किसी
पत्र -पत्रिका या पुस्तक के महाजाल में
फेसबुक पर तैरती हुई
ट्विटर पर उड़ती हुई
ट्रक के पीछे लटककर
बसों में चिपककर
रेलगाड़ी में छुपकर
छा जाती है
गली, नुक्कड़, चौराहे
घर और हाट-बाजार तक।
भूल से भी छपकर मर नहीं जाती
तमगे दिवस को जिन्दा होने के लिए
और इसे
विश्वविद्यालय का कब्रिस्तान भी दफनाता नहीं
तुम्हारी कविता बेशक कविता होगी
गोकि तुम कवि नहीं माने जाते
'ऐरे गैरे नत्थू खैरे' तुम कहोगे-
केवल बड़े नहीं निर्माता है
यहाँ जन गण भी भाग्यविधाता है।

Saturday, July 14, 2012

(लघुकथा)
काफिरे समझ लिए हो क्या?
-----------------------------
रहमत जब बड़े दिनों बाद गाँव लौटा तो उसकी मुलाकात बचपन के दोस्त बन्ने मियाँ से अचानक हो गई। दोनों काफी खुश हुए। बातचीत बचपन के दिनों से शुरू होकर आज तक पहुँच गई। रहमत ने पूछा- बन्ने तूने तो दाढ़ी बढ़ा ली है, दीनो करम पर मेहरबान हो रहे हो। बन्ने ने कहा - अरे नहीं बात तो असल में ये है कि अब हजामत चवन्नी में तो होती नहीं है, कम से कम दस टके ल...गते हैं तो सोचा क्यों न दाढ़ी बढ़ा ही लूं। पैसे भी बचेंगे और दीन का काम भी हो जाएगा। इस पर रहमत ने पूछा- नमाज़ तो पढ़ते ही होगे और मस्ज़िद भी जाते होगे। 'रोज-रोज कहाँ पढ़ पाता हूँ, भाई मज़दूर आदमी हूँ, दिन भर काम करने के बाद तो किसी काम का नहीं रह पाता। पाँचों वक्त का नमाज़ तो वे पढ़ते हैं जो मालदार हैं। जिनका शरीर नहीं हिलता वे ही नमाज़ के लिए हिलते हैं। अलबत्ता जुम्मे के दिन कोशिश करता हूँ कि मस्जिद चला जाऊँ।'- बन्ने ने कहा। इसपर रहमत ने पूछा- रोजा तो रखते होगे। बन्ने ने जबाव दिया- भाई रोज-रोज रोजा रखेंगे तो परिवार कहाँ से खाएगा। अल्ला मियाँ माफ करे, अगर भूखा रहा तो ना हाथ गाड़ी खींच सकता हूँ और ना सामान ही उठा सकता हूँ । मगर खुदा का खौफ मुझे भी है, कयामत के दिन मुझे भी जबाव देना है इसलिए बड़ी मुश्किल से एक-दो रोजा रख लेता हूँ। रहमत ने कहा- फिर तो तुम्हारे लिए जकात करना भी काफी मुश्किल होगा। 'ठीक कहा, जिसे यह नहीं पता कि कल क्या खाएंगे वे जकात कहाँ से करे- बन्ने ने सहमति के स्वर में कहा। चलते- चलते रहमत ने पूछा- भाई महँगाई भी तो काफी बढ़ गई है। अच्छा बताओ 'बड़का' (गाय का गोश्त)खाते हो कि नहीं? इस पर बन्ने ने तल्खी से कहा- कैसी बात करते हो रहमत मियाँ , काफिरे समझ लिए हो क्या?
(लघुकथा)
काफिरे समझ लिए हो क्या?
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रहमत जब बड़े दिनों बाद गाँव लौटा तो उसकी मुलाकात बचपन के दोस्त बन्ने मियाँ से अचानक हो गई। दोनों काफी खुश हुए। बातचीत बचपन के दिनों से शुरू होकर आज तक पहुँच गई। रहमत ने पूछा- बन्ने तूने तो दाढ़ी बढ़ा ली है, दीनो करम पर मेहरबान हो रहे हो। बन्ने ने कहा - अरे नहीं बात तो असल में ये है कि अब हजामत चवन्नी में तो होती नहीं है, कम से कम दस टके ल...गते हैं तो सोचा क्यों न दाढ़ी बढ़ा ही लूं। पैसे भी बचेंगे और दीन का काम भी हो जाएगा। इस पर रहमत ने पूछा- नमाज़ तो पढ़ते ही होगे और मस्ज़िद भी जाते होगे। 'रोज-रोज कहाँ पढ़ पाता हूँ, भाई मज़दूर आदमी हूँ, दिन भर काम करने के बाद तो किसी काम का नहीं रह पाता। पाँचों वक्त का नमाज़ तो वे पढ़ते हैं जो मालदार हैं। जिनका शरीर नहीं हिलता वे ही नमाज़ के लिए हिलते हैं। अलबत्ता जुम्मे के दिन कोशिश करता हूँ कि मस्जिद चला जाऊँ।'- बन्ने ने कहा। इसपर रहमत ने पूछा- रोजा तो रखते होगे। बन्ने ने जबाव दिया- भाई रोज-रोज रोजा रखेंगे तो परिवार कहाँ से खाएगा। अल्ला मियाँ माफ करे, अगर भूखा रहा तो ना हाथ गाड़ी खींच सकता हूँ और ना सामान ही उठा सकता हूँ । मगर खुदा का खौफ मुझे भी है, कयामत के दिन मुझे भी जबाव देना है इसलिए बड़ी मुश्किल से एक-दो रोजा रख लेता हूँ। रहमत ने कहा- फिर तो तुम्हारे लिए जकात करना भी काफी मुश्किल होगा। 'ठीक कहा, जिसे यह नहीं पता कि कल क्या खाएंगे वे जकात कहाँ से करे- बन्ने ने सहमति के स्वर में कहा। चलते- चलते रहमत ने पूछा- भाई महँगाई भी तो काफी बढ़ गई है। अच्छा बताओ 'बड़का' (गाय का गोश्त)खाते हो कि नहीं? इस पर बन्ने ने तल्खी से कहा- कैसी बात करते हो रहमत मियाँ , काफिरे समझ लिए हो क्या?

इतिहास राजनीति का युद्ध क्षेत्र है।

  इतिहासलेखन का स्वरूप, इतिहासलेखन का उद्देश्य और इतिहासलेखन में समय-समय पर होने वाले परिवर्तनों का सीधा संबंध समकालीन राजनीति के साथ होता ह...