हमारे आसपास की दुनिया हमें संतुष्ट नहीं करती है । हम महसूस करते है कि चीजे और बेहतर ही सकती है ।
लोगों को लगता है कि उनकी परेशानी बढती जा रही है। लोग अनैतिक होते जारहे है , मूल्यों का पतन हो रहा है ,
रिश्ते टूट रहे है । वे ये भी समझते है कि आधुनिकता ने सबको अँधा बना दिया है । कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी
इस बात को हवा दे रहे है कि हमारी परंपरा हमारी संस्कृति को ख़त्म करने के लिए व्यापक साजिश रची जा रही है। वे इसके लिए पश्चिमी संस्कृति के खुलेपन को जिम्मेवार ठहराते है । देश की एक बड़ी आबादी को बहकाकर
वे समाज में अपनी पहचान कायम करना चाहते है । क्या हमारा फ़र्ज़ नहीं बनता है की अगर हम उसे गलत समझते है तो हम उसके खिलाफ एकजुट हो , तो आईये उनका विरोध किया जाय अपनी कलम से अपने विचार से । धन्यवाद ।
Sunday, September 19, 2010
Sunday, September 12, 2010
बुढ़िया
एक शब्द है
बुढ़िया
जो
आदरसूचक अर्थ नहीं रखता
मगर
अवस्थाबोध जरुर करता है
जिसे भिखमंगे जैसी दया की
दरकार होती है
मेरी दादी वही हो गयी है
बुढ़िया
माँ की नज़रों में
वह काम नहीं कर सकती है
इसलिए
पापा कहते है
मुफ्तखोर
फ्लेट के उस कोने में
जहाँ
मै टॉमी को बांधता था
बिस्तर लगा है
बुढ़िया
यानि मेरी दादी का
माँ की जो साड़ी
पहले कामवाली बाई ले जाती थी
अब पहनती है
बुढ़िया
यानी मेरी दादी
कल जब सिन्हा आंटी आयी थी
तो
माँ ने कहा था
उनके गांव की है
बुढ़िया
वह हमेशा राम - राम जपती रहती है
डेली सोप के समय
माँ चीखती है
पागल बुढ़िया
चुप रहो
मै उससे मिल नहीं सकता
वह बीमार है
स्कूल से लौटने पर
उसे दूर से देख सकता हूँ
उसके हाथ कांपते रहते है
वह दिन में कई बार
अपनी गठरी खोलती है
टटोलती है
मानों कुछ
खोज रही हो
और फिर बंद कर देती है
माँ कहती है
काफ़ी भद्दी और लालची है बुढ़िया
एकदम देहाती गंवार है
मगर
बुढ़िया मेरेलिए आश्चर्य है
जब मुझे पता लगा
कि
वह मेरे पापा की माँ है
तो
मुझे विश्वास नहीं हुआ
क्या माँ ऐसी होती है ?
एक दिन
उसने मुझे
पास बुलाकर एक मिठाई दी
और कहा -" खा "
मै खाने को ही था
कि
माँ ने आकर
मेरे हाथ झटक दिए
कहा -
जहर है मत खा
फिर बुढ़िया से कहा
इस मिठाई की तरह
तुम्हारा दिमाग भी सड़ गया है
वह रोज नहीं नहा पाती
वह बदबू देती है
उसके बर्तन अलग हैं
महाराज उसके लिए
अलग से खाना बनाता है
बुढ़िया यानी
मेरी दादी से
कोई बात नहीं करता
सिवाय उस महरी के
जो झाड़ू लगाने आती है
फिर भी
वह बड़बड़ाती रहती है
कभी-कभी
वह रोने लगती है
जबकि
उसे कोई मारता नहीं है
माँ कहती है
नाटक
मैंने जब माँ से पूछा -
बुढ़िया
यहाँ क्यूँ आई है
तो
माँ ने हँसते हुए कहा -
मरने के लिए!
- ॐ राजपूत
बुढ़िया
जो
आदरसूचक अर्थ नहीं रखता
मगर
अवस्थाबोध जरुर करता है
जिसे भिखमंगे जैसी दया की
दरकार होती है
मेरी दादी वही हो गयी है
बुढ़िया
माँ की नज़रों में
वह काम नहीं कर सकती है
इसलिए
पापा कहते है
मुफ्तखोर
फ्लेट के उस कोने में
जहाँ
मै टॉमी को बांधता था
बिस्तर लगा है
बुढ़िया
यानि मेरी दादी का
माँ की जो साड़ी
पहले कामवाली बाई ले जाती थी
अब पहनती है
बुढ़िया
यानी मेरी दादी
कल जब सिन्हा आंटी आयी थी
तो
माँ ने कहा था
उनके गांव की है
बुढ़िया
वह हमेशा राम - राम जपती रहती है
डेली सोप के समय
माँ चीखती है
पागल बुढ़िया
चुप रहो
मै उससे मिल नहीं सकता
वह बीमार है
स्कूल से लौटने पर
उसे दूर से देख सकता हूँ
उसके हाथ कांपते रहते है
वह दिन में कई बार
अपनी गठरी खोलती है
टटोलती है
मानों कुछ
खोज रही हो
और फिर बंद कर देती है
माँ कहती है
काफ़ी भद्दी और लालची है बुढ़िया
एकदम देहाती गंवार है
मगर
बुढ़िया मेरेलिए आश्चर्य है
जब मुझे पता लगा
कि
वह मेरे पापा की माँ है
तो
मुझे विश्वास नहीं हुआ
क्या माँ ऐसी होती है ?
एक दिन
उसने मुझे
पास बुलाकर एक मिठाई दी
और कहा -" खा "
मै खाने को ही था
कि
माँ ने आकर
मेरे हाथ झटक दिए
कहा -
जहर है मत खा
फिर बुढ़िया से कहा
इस मिठाई की तरह
तुम्हारा दिमाग भी सड़ गया है
वह रोज नहीं नहा पाती
वह बदबू देती है
उसके बर्तन अलग हैं
महाराज उसके लिए
अलग से खाना बनाता है
बुढ़िया यानी
मेरी दादी से
कोई बात नहीं करता
सिवाय उस महरी के
जो झाड़ू लगाने आती है
फिर भी
वह बड़बड़ाती रहती है
कभी-कभी
वह रोने लगती है
जबकि
उसे कोई मारता नहीं है
माँ कहती है
नाटक
मैंने जब माँ से पूछा -
बुढ़िया
यहाँ क्यूँ आई है
तो
माँ ने हँसते हुए कहा -
मरने के लिए!
- ॐ राजपूत
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