Sunday, November 29, 2020

मेरी कविता फुटपाथ पर मिलेगी

मेरी कविता
फुटपाथ पर मिलेगी
किसी दुकान में नहीं
तुम फुटपाथ पे रहते हो
आओ पढ़ लो इसे
अपनी चहलकदमी में
अनगिनत लक्ष्यों को
छोड़ती
पकडती
मिल जाने की ख़ुशी से
न मिल पाने के गम तक
रहने के काबिल नहीं
दुनिया को छोड़ने का मन नहीं करता
बौद्धिक क्षमता से जी रहे
जीवन ने
नैतिकता का ठेका ले लिया है
ईश्वर की विरासत पर
नास्तिकों ने
सबूत के साथ दावा ठोंक दिया है
और संस्कृति मंत्रालय के अनुदान की खातिर
सड़क पर उतर आया है
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
सरकारी रायते पर फैलते प्रबंधकों ने
जिन पत्रकारों को
निकाल बाहर किया है
समस्या की जड़ को पकड़े
अपनी-अपनी खिड़कियों से
बेतार की गलियों को नाप रहे हैं
हांफते हुए 
गोदी मीडिया के दुत्कारे
ज़कात का थैला लिए
किसी को जो जजिया दीखता है
मार्क्स, लेनिन, माओ
की कसम खाने वाले को
लोकतंत्र खतरे में नजर आने लगा है
संविधान की जिल्दें नीली हो गई है
जिसका कोर लालधारी है.
महापुरुषों का फिर से
नई सरकार बहादुर ने
डीएनए टेस्ट कराया है
लौहपुरुष का गोत्र
नेहरू से ऊपर गाँधी के बराबर है
सावरकर हेडगेवार गुरु जी का सबसे ऊपर
इस डर से कि
इस आपाधापी में कहीं जिन्ना की तस्वीर
उतर न जाए
शेरवानी में लठैतों की ड्यूटी बंट गई है
खोज तो इसकी भी हो रही है कि
विवेकानंद ने मार्क्स को पढ़ा था कि नहीं
जेएनयू में दाखिले के लिए
इतनी बड़ी दुनिया को
हमने अपने विस्तार में सिमटा दिया है
ज़मीं से हवा-पानी में हम फ़ैल गये हैं
समस्या इतनी बढ़ गई है कि
हल होना भी एक समस्या है
हम अपने पडोसी को सलाह देते हैं
उसकी मुसीबत बढ़ जाती है.
फ़्रांस का हमें दुःख हो जाता है
और अमेरिकी चुनाव से
हम खुश हो जाते हैं
मगर
बिहार फिर से चोरी चला जाता है
झूठ को पाकीजगी से बोलो
तो
खुदा हो जाता है
मूक-बधिर
अंधों का प्रवक्ता बन बैठता है
जोड़ने के लिए तोड़ना जरुरी है
तोड़ने के लिए जोड़ा जा रहा है
भाषा
विचार
रंग
रक्त
नस्ल
धर्म
भूगोल
से बांधा तो जाता है
फिर भी खुला छूट जाता है
और
किसी के इन्कलाब पे
जिंदाबाद कोई और बोलता है
जंगल में जब भी होते हैं
विरोध-प्रदर्शन
जानवरों की पीठ पर पेड़ उग आते हैं
उम्मीदों का उड़ान
पैरों को पर बना देता है
विरोध के स्वर बिखर के
चारों तरफ
सड़क को जंगल बना देता है
भीड़ उमड़ आती है
और
हमारे अन्नदाता पहचाने नहीं जाते हैं
रक्षकों ने
अपना पाला बदल दिया है
नायकों के संवाद
खलनायकों के संवाद से बदल गया है
इस संकटकाल में
अविश्वास इतना है कि
तारीख के बाबर को भी
मौके के हिसाब से
बयान देना पर रहा है
बहस ये है कि
हमें सच से कब रूबरू कराया गया
एक लकीर खेंच कर
बता दिया गया कि
इस तरफ और उस तरफ में
पूरब-पश्चिम जितना फासला है
प्राचीन
मध्यकालीन
आधुनिक
काल में विभाजित इतिहास
हमारे जेहन में
बिलकुल समकालीन हो गया है
औरंगजेब के हाथों
दारा सुकोह का क़त्ल हो रहा है
हम मंदिरों को गिरते देख रहे हैं
अर्जुन देव ने अभी-अभी शहादत दी है
कश्मीरी पंडितों के लिए
जिसके फलस्वरूप भिंडरावाला मारा गया है
मुस्लिम लीग के
‘डायरेक्ट एक्शन डे’ की आग और हिंसा
पंजाब बंगाल दिल्ली बिहार
गोधरा होते हुए गुजरात पहुँच गया है
और जिस जंग को
पृथ्वीराज चौहान
दया-धर्म के बदौलत
लगभग गँवा चुके थे
उसे जीत लिया है हिन्दू ह्रदय सम्राट ने.
और इधर
हमारी बेलौस बहकी हुई कविता
इधर-उधर मुंह मारती हुई जा पहुंचती है 
साहित्यिक कोठे पे
और फिर
बड़े-बड़े दावों के बीच से
यूँ ही निकल आती है 
बंद मुट्ठी से फिसलते रेत की तरह
क्योंकि
मेरी कविता पर
मेरी अँगुलियों के निशान नहीं है
उसपर अपने वक़्त का मुहर है.

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