बरसात में
दूबों के भी हरे-हरे
पर निकल आते हैं।
पथरीली और बंजर जमीनों की भी
गोद भराई हो जाती है।
बरसात में पेड़ लगाने के ही अनुष्ठान नहीं होते
खुद ब खुद काई भी उगा करती है।
सभी को पनपने की बेहिसाब आजादी
मिल जाती है,
जिससे चीजें बिगड़ने लगती है
बरसात में।
सदा चुप रहने वाले हरे पेड़-पौधे भी
बेतरतीब रूप से फैलने लगते हैं
अब तक लोहे के बड़े-बड़े औजारों की देखरेख में
फौजी अनुशासन में करीने से खड़ा
आंख को सुहाता
विशाल बगीचा
और पोर्टिको का पालतू नस्ली पौधा
भी
पैनी नजर की मांग करने लगता है।
बरसात में
यूँ तो
अंग्रेजी नाम वाले पौधे
काफी खरच कर लगाया जाता है
जैविक खाद और माकूल मिट्टी के नीचे
मगर
बरसात तो
पत्थर पर फूल खिला देता है।
जिसे हम
खर-पतवार, घास-फूस, काई समझते हैं।
बरसात उसे भी जी लेने का अवसर देता है।
समाजवाद से आगे की कोई चीज है बरसात।
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