Friday, November 23, 2012

यहाँ जन गण भी भाग्यविधाता है

चलो निकलो घर से
छुटभैये कवि
अपनी दो टके की
सतही कविता के साथ
इस क्रांति में वे ही असरदार होंगे
खालिस तुकबंदी भी चलेगी
और पैरोडी भी
विचारधारा विहीन इस उथल पुथल के दौर में
कोई भी स्थापित कवि
क्रांति के गीत नहीं गाएगा
उन्होंने अपने शब्द छुपा लिए हैं।
माँगने पर ठुकरा देते हैं।
क्योंकि कुर्सियां बढ़ा दी गई है कतार में
रुका पड़ा है सम्मान समारोह उनके इंतजार में
अब सारी जिम्मेवारी तुम्हारे ऊपर
तुम जो अबतक पढ़े नहीं गए
तुमने जो कभी अच्छा नहीं लिखा
चाहकर भी दोयम दर्जे से निकल नहीं पाए
अपनी समझ में आनेवाली
साधारण सी कविता में पिरो दो
हमारे साधारण से सारे दुःख दर्द।
ऐसी कविता बिना आलोचकों के सिफारिश से
पहुँच सकती है हम तक
फंसती नहीं किसी
पत्र -पत्रिका या पुस्तक के महाजाल में
फेसबुक पर तैरती हुई
ट्विटर पर उड़ती हुई
ट्रक के पीछे लटककर
बसों में चिपककर
रेलगाड़ी में छुपकर
छा जाती है
गली, नुक्कड़, चौराहे
घर और हाट-बाजार तक।
भूल से भी छपकर मर नहीं जाती
तमगे दिवस को जिन्दा होने के लिए
और इसे
विश्वविद्यालय का कब्रिस्तान भी दफनाता नहीं
तुम्हारी कविता बेशक कविता होगी
गोकि तुम कवि नहीं माने जाते
'ऐरे गैरे नत्थू खैरे' तुम कहोगे-
केवल बड़े नहीं निर्माता है
यहाँ जन गण भी भाग्यविधाता है।

5 comments:

vandana gupta said...

आपका इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (24-11-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

Dr. Om Rajput said...

धन्यवाद वंदना जी।

Onkar said...

सुन्दर रचना

arya007 said...

om ji behad hi khusurat kriti hai

Dr. Om Rajput said...

thnx sabhi ko.

कविता :-एक दिन मनुष्य भी हमारी अनुमति से खत्म हो जाएगा।

  कितना मुश्किल होता है किसी को न बोल पाना हम कितना जोड़ रहे हैं घटाव में। बेकार मान लिया जाता है आदतन अपने समय में और अपनी जगह पर जीना किसी ...