शोर का सन्नाटा है कि
हमें हमारे हक़ की आवाज़ डराने लगी है,
कान फटने लगता है।
तेज रौशनी के अंधेरे में
हमारा खुद का चेहरा छुप सा गया है,
नहीं दिख रहा है कि किधर जा रहे हैं,
हमारे हाथों से क्या हो रहा है।
ज्ञान की अज्ञानता ने
हमारे वर्तमान को इतिहास के पन्ने में भटका दिया है।
भारी किताबों के भरकम पन्नों से
अभी तक के सभी सूत्र बिखर गए हैं।
खाये पिये अघाये लोगों की भूख ने
रोटी को
इतना मंहगा कर दिया है कि
इस सदी की सबसे अधिक भूखी रातें
हमारे हिस्से में टकटकी लगाए गुजरती है।
साहसी लोगों की कायरता ने
एक बार फिर से मुल्क को लुटने के लिए निहत्था छोड़ दिया है। हथकड़ीऔर बेड़ियां
रोज रोज भीमकाय होती हुई
भीड़ की भीड़ को निगलती जा रही है।
भीड़ की तन्हाई ने इतना अकेला कर दिया है
कि जहां एक हाथ बढ़ाने भर से गिरते को
गिरने से बचाया जा सकता था
वहां भी हजार की मौजूदगी में
एक निहत्था जान नहीं बचा पाता है।
कथित देवताओं की शैतानी से
हमारी धार्मिक आस्थाएं दरकती हुई ढहने लगी है।
हमने जो ऋचाओं से दिन की शुरुआत की थी,
एक भद्दी गाली के साथ खत्म कर रहे हैं अंधेरे में ।
लोकतंत्र के अधिनायकत्व में,
समाजवाद की विलासिता में
बिचारि जनता
मतदान केंद्र की ओर बढ़ती हुई लगातार भटकती जा रही है
और उसके हाथ की अंगुली से निकल के प्रभुसत्ता
स्याह निशान छोड़ते हुए
जाति
तो मजहब
तो पैसे
तो दारू से नाजायज़ रिश्ता बनाती
हमारी उम्मीदों पे रंगरेलिया मना रही है।
और हम हैं कि भरोसे की दग़ाबाज़ी से लहूलुहान होते हुए भी
सुकून से सो जाते हैं।
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